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________________ अनेकान्त 63/3, जुलाई-सितम्बर 2010 31 तरह तत्समुदयरूप अनेकान्त का भी अभाव हो जायेगा। यदि एकान्त ही माना जायेगा तब उस स्थित में अविनाभावी इतरधर्मों का लोप होकर प्रकृत शेष का भी लोप हो जायेगा। वस्तुतः अनेकान्त की प्रतिपत्ति प्रमाण है एवं एक धर्म की प्रतिपत्ति नय है। स्याद्वादमंजरी में न्यायदर्शन के अनुमान के स्वरूप में अनुमान का निश्चयात्मक तृतीय ज्ञान 'परामर्श' जैसे शब्द का प्रयोग कर निश्चित प्रमाणांश को प्राप्त कराने वाली नीति को नय कहा गया है। इसकी समानता सर्वार्थसिद्धि के नय स्वरूप से की जा सकती है। आचार्यों के द्वारा 'नीयते एकविशिष्टोऽर्थः प्रतीतिनियमगामिरिति नीतयो नयः।" जीवादीन् पदार्थान् नयति, प्राप्नुवन्ति, कारयन्ति, साधयन्ति, निवर्तयन्ति, निर्भासयन्ति, उपालम्भयन्ति, व्यंजयन्ति इति नयः। नानास्वभावेभ्यो व्यावर्त्य एकस्मिन्स्वभावे वस्तु नयति प्रापयतीति वा नयः।' आचार्य विद्यानन्द ने 'नीयते गम्यते येन श्रुतांशो नयः। इस व्युत्पत्यर्थ के अनुसार जिस नीति से एकदेश विशिष्ट पदार्थ लाया जाता है अर्थात् प्रतीति के विषय को प्राप्त कराया जाता है, उसे नय कहा है। इन सभी नयों की व्युत्पत्तियों में नय का जो साधकतम करण हो उसे नय माना गया है। वस्तुतः नय प्रमाण के अंश होने के कारण नय में भी प्रमाणत्व अवश्य रहेगा। प्रमा का करण प्रमाण कहलाता है। जो साधकतम हो, वह करण होता है। प्रमा या जानने रूप क्रिया जैनागम में चेतन मानी गयी है। इसलिए उसमें साधकतम उसी का गुण ज्ञान ही माना जा सकता है। इस दृष्टि से नय क्रिया का भी साधकतम उसी का गुण ज्ञनांश होगा। जब 'नीयते य इति नयः' इस तरह कर्म साधन रूप व्युत्पत्ति की जायेगी, तब नय का अर्थ यह होगा कि नयों के द्वारा अर्थ ही जाने जाते है। आचार्य अकलंक ने ज्ञाताओं की अभिसन्धि प्रमाण और प्रमिति के एक देश का सम्यक् निर्णय कराने वाले को नय कहा है। वस्तुत: नय भी ज्ञान की ही वृत्ति है। सर्वार्थसिद्धि में नय के स्वरूप में इन व्युत्पत्तियों का निहितार्थ संक्षेप में युक्तियुक्तरूप से गर्भित किया गया है। नय सम्यग्दर्शन एवं पुरुषार्थ के हेतु । आचार्य पूज्यपाद ने लिखा है कि नय गौणमुख्यरूप से एक दूसरे की अपेक्षा करके सम्यग्दर्शन के हेतु हैं। जिस प्रकार तन्तु आदिक पुरुष की अर्थक्रिया और साधनों की सामर्थ्य से यथायोग्य निवेशित कर दिये जाने पर पट आदि की संज्ञा को प्राप्त होते हैं, उसी प्रकार ये नय भी स्वतंत्र रहने पर अपेक्षा बुद्धि से कार्यकारी ही हैं। क्योंकि पूर्व पूर्व का नय उत्तर उत्तर के नय का हेतु बनकर कार्यकारी होता है। परस्पर निरपेक्ष अंश पुरुषार्थ के भी हेतु नहीं बन सकते, वे परस्पर सापेक्ष होकर ही व्यवहार में साधक हो सकते हैं क्योंकि उस रूप में उनकी उपलब्धि होती है। मुख्य का नियामक नय वधिरूप प्रमाण का प्रतिषेध के साथ तादात्म्य संबन्ध होने से इनमें एक प्रधान और दूसरा गौण होता है, जिसका निर्धारण एक अंश को ग्रहण करके भी अन्य अंशों को गौण रखकर उनका तिरस्कार न करते हुए तथा अपेक्षा बनाये रखने वाले, नय के द्वारा होता है।
SR No.538063
Book TitleAnekant 2010 Book 63 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2010
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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