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________________ अनेकान्त 63/3, जुलाई-सितम्बर 2010 मति, श्रुत आदि पांच ज्ञानों की अथवा ज्ञान के धारी की प्रशंसा करने पर अथवा उसकी प्रशंसा सुनने पर मुख से कुछ नहीं कह करके मानसिक परिणामों में पैशून्य होता है अथवा अन्त:करण में उसके प्रति ईर्ष्या का भाव होता है, वह प्रदोष कहलाता है। ज्ञानावरणकर्म का आस्रव का कारण है। निह्नव- दूसरे के अभिसन्धान से ज्ञान का अपलाप करना निह्नव है। यात्किञ्चितपरमित को लेकर किसी बहाने से किसी बात को जानने पर भी मैं इस बात को नहीं जानता हूँ इस प्रकार ज्ञान को छिपाना ज्ञान के विषय में वंचन करना निह्नव है। मात्सर्य- किसी कारण से आत्मा के द्वारा भक्ति, देने योग्य ज्ञान को भी योग्य पात्र के लिए नहीं देना मात्सर्य है। अन्तराय- ज्ञान का व्यवच्छेद करना अन्तराय है। कलुषता के कारण ज्ञान का व्यवच्छेद करना, कलुषित भावों के वशीभूत होकर ज्ञान के साथ पुस्तकादि का विच्छेद करना/ नाश करना किसी के ज्ञान में विघ्न डालना अन्तराय है। उपघात- प्रशस्त ज्ञान में दूषण लगाना उपघात है। स्वकीया बुद्धि और हृदय की कलुषता के कारण प्रशस्त ज्ञान भी अप्रशस्त, युक्त भी अयुक्त प्रतीत होता है। अतः समीचीन ज्ञान में भी दोषों का उद्भावन करना, झूठा दोषारोपण करना उपघात कहलाता है सामान्य रूप से दोनों (उपघात और आसादना) आस्रवों का समान स्वरूप प्रतीत होता है, किन्तु इनमें मूलभूत अन्तर है- आसादना में विद्यमान ज्ञान की विनय प्रकाशन न करना। दूसरे के सामने ज्ञानवान् की प्रशंसा न करना आता है किन्तु उपघात में दूसरे के ज्ञान को अज्ञान मानकर उसके नाश करने का अभिप्राय रखा जाता है। इनके अतिरिक्त आगम विरुद्ध बोलना, अनादर पूर्वक अर्थ का सुनना अध्ययन में आलस्य, शास्त्र बेचना, आचार्य के प्रतिकूल चलना, धर्म में रुकावट डालना, ज्ञानीजनों का तिरस्कार, धूर्तता का व्यवहार करना ये सब ज्ञानावरण कर्म के आस्रव के कारण हैं।' ज्ञान के विषय में ऊपर कहे गये प्रदोषादिक यदि ज्ञान-ज्ञानी और उसके साध नों के विषय में किये गये हों तो ज्ञानावरण कर्म के आस्रव होते हैं और दर्शन तथा दर्शन के साधनों के विषय में किये गये हों तो दर्शनावरण कर्म के आस्रव होते हैं। इसके अतिरिक्त नेत्रों का उखाड़ना, बहुत काल तक सोना, दिन में सोना, नास्तिकता का भाव रखना, सम्यग्दृष्टि जीव में दूषण लगाना, कुगुरुओं की प्रशंसा करना और समीचीन तपस्वी गुरुओं में ग्लानि करना दर्शनावरण कर्म के आस्रव हैं। वर्तमान में उक्त ज्ञानावरण और दर्शनावरण कर्म के आस्रव के निमित्तों को श्रावक ने तो परिणामों की मलिनता के वशीभूत होकर अपना ही रखा है। खेद है साधु भी ज्ञान होते हुए भी इन आसवों से अपने को नहीं बचा रहा है। सभी का प्रयत्न होना चाहिए कि उक्त निमित्तों से अपने को बचावें। वेदनीय कर्म- जीव को जो कर्म सुख अथवा दुःख का वेदन कराता है, वह वेदनीय कर्म है। मिथ्यात्व आदि प्रत्ययों के वश से कर्म पर्याय में परिणत और जीव के साथ
SR No.538063
Book TitleAnekant 2010 Book 63 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2010
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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