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________________ 67 अनेकान्त 63/2, अप्रैल-जून 2010 का विषय माना है और कहा है धर्म का / वस्तु स्वरूप का जिन विचारों द्वारा समर्थन किया जाता है वह विचार दर्शन है।' सिद्धान्त की दृष्टि से दर्शन रुचि प्रत्यय श्रद्धा और दर्शन ये सभी समानार्थक शब्द हैं। इस दृष्टि से आप्त, आगम और पदार्थ के प्रति जो रुचि होती है वह दर्शन कहा जाता है। धवलाकार ने जिसे आप्त आगम एवं पदार्थों के प्रत्यय में रुचि श्रद्धा उनके प्रति दृष्टि भाव स्पर्श भाव को दर्शन कहा "दर्शनम् तत्त्वरोचकम्" दर्शन का नाम तत्त्व रुचि है" जीव अजीव, आस्रव, बंध , संवर, निर्जरा और मोक्ष ये सात तत्त्व कहे गये हैं। इनके प्रति रुचि या श्रद्धा का नाम दर्शन है, दूसरी ओर वस्तु का यथार्थ श्रद्धान को दर्शन कहा जाता है।' दर्शन का नाम आत्म परिणाम भी है जो दर्शन मोहनीय कर्म के क्षय क्षयोपशम से उत्पन्न होता है जिसे दृष्टि भी कहते हैं। इसमें यह भाव भी निहित है कि जितने भी जीव जगत के पदार्थ हैं वे सभी हमारे द्वारा जाने जाते हैं उनका अनुभव किया जाता है और उनके रहस्य को समझने के लिए जिस दृष्टि का उपयोग किया जाता है वह भी दर्शन है। उपयोग की दृष्टि से दर्शन जीवो उवयोगमायो जीव को उपयोग स्वरूप माना गया है। उपयोग में ज्ञान और दर्शन दोनों ही समाहित हैं प्रसिद्ध दार्शनिक सिद्धसेन दिवाकर ने इसी आधार पर दर्शन का अर्थ सामान्य ग्रहण किया है। यथार्थ में जीव स्वभाव से सामान्य प्रधान है जो कारण विशेष से अर्थ की ओर प्रवृत्त होता है इसलिये उसे दर्शन कहा जाता है। सामान्यबोधो दर्शनम्" जिसे सामान्य अर्थात् वस्तु के संपूर्ण विषय का बोध होता है उसे दर्शन कहते हैं अवलोकन वृत्ति का नाम भी दर्शन है धवलाकार ने इस लिये कहा है "स्वरूपसंवेदनं दर्शनम्''११ दर्शन का नाम न्याय ऋषि परंपरा के विषय में विचार करते हैं तो सूत्रपाहुड का सूत्र संपूर्ण स्थिति को स्पष्ट कर देता है। अरहतभासियत्थं गणहरदेवेहिं गंथियं सम्म। सुत्तत्थमग्गणत्थं सवणा साहति परमत्थं। 12 अर्थात् केवलज्ञान प्राप्त होने पर अरिहंत अवस्था में जो कुछ कथन किया जाता है उसमें अर्थ ही रहता है अर्थ का वास्तविक स्वरूप रहस्य है जिसमें संपूर्ण लोकालोक के विषय का यथार्थ चित्रण किया होता है उनके शिष्य उस चित्रण को प्रस्तुत करते हुए उनकी जो व्याख्यायें की जाती है। ये विविध क्षेत्रों में विविध रूपों को धारण करती हुई जग-जन को ओलोकित करती हैं। श्रुति तीर्थगत है जिनमें धर्म दर्शन और न्याय तीनों ही समाहित होते हैं। (क) धर्म - वस्तु स्वरूप का यथार्थ चित्रण
SR No.538063
Book TitleAnekant 2010 Book 63 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2010
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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