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________________ अनेकान्त 63/2, अप्रैल-जून 2010 "पञ्चाग्निमधमस्थानं, ततो नैवोचितं तपः। जन्तुमारणहेतुत्वादाजवञ्जवकारणम्॥ क्षत्रचूडामणि 6/13 जैन दर्शन में सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान सहित होकर 5 अणुव्रत, 3 गुणव्रत और 4 शिक्षा व्रतों के धारी तथा स्थूल पंचपाप के त्यागी होते हैं, वे ही गृहस्थ (श्रावक) कहलाते हैं। मद्यत्याग मांसत्याग, मधुत्याग, हिंसा त्याग (अहिंसाणुव्रत), असत्य त्याग (सत्याणुव्रत), चौर्यत्याग (अचौर्याणुव्रत), स्वदारसंतोष (ब्रह्मचर्याणुव्रत) और परिग्रहत्याग (परिग्रहपरिमाणु व्रत) ये श्रावक के अष्ट मूल गुण हैं। अणुव्रत गृहस्थाश्रम में पालनीय व्रत पूर्णतः त्यागी नहीं हो सकता है। अतएव एक देश व्रतों का पालन करने वाला होता है। एक-देश व्रती अहिंसाणुव्रत, अचौर्यणुव्रत, ब्रह्मचर्याणुव्रत, परिग्रहपरिमाणुव्रत का अच्छी प्रकार पालन करता है। संकल्प पूर्वक सब जीवों की हिंसा का परित्याग करना अहिंसाणुव्रत कहलाता है। गृहस्थ जीवन में हिंसा चार तरह से होती है। संकल्पी, विरोधी, आरंभी और उद्योगी हिंसा। आचार्य सोमदेव के शब्दों में “यः शस्त्रवृत्ति समरे रिपु स्यात्, यः कंटको वा निजमण्डलस्य। अस्त्राणि तमेव नृपाः क्षिपन्ति, न दीप कानीन शुभाशयेषु॥ अर्थात् दूसरों का भाव घात हो, इस प्रकार के स्थूल असत्य को जो नहीं बोलता और दूसरों को उस प्रकार के प्राणीवधात्मक असत्य को बोलने में प्रेरणा नहीं देता तथा धर्म संकट या प्राणघात प्रसंग में सत्य बोलने का भी जो आग्रह नहीं करता उसे मुनिगण स्थूल झूठ वचन से विरक्ति होना कहते हैं। रखे हुए, गिरे हुए या भूले हुए पराये धन को बिना देखे जो न तो स्वयं लेता है और न उठाकर दूसरों को देता है, उसे स्थूल चोरी से विरक्त होना अर्थात् अचौर्याणुव्रत कहते हैं। विवाहित स्त्री छोड़कर इतर समस्त स्त्रियाँ परस्त्री कहलाती हैं। अपनी स्त्री को छोड़कर पाप के भय से परस्त्रियों के प्रति स्वयं गमन नहीं करना स्व दूसरों को गमन करने की प्रेरणा नहीं करना, परदार निवृत्ति नामक ब्रह्मचर्याणुव्रत है इसे स्वदार संतोष नामक अणुव्रत भी कहते हैं। धन धान्यादि परिग्रहों को अपनी आवश्यकता के अनुसार सीमित कर इतर सर्वपरिग्रहों में निस्पृहता धारण करना यह परिमित परिग्रह नामक व्रत कहलाता है इसे इच्छापरिमाण नाम से भी कहते हैं। संसार के समस्त धनधान्य संपत्ति स्त्री, पुत्रादि में यह मेरे है, मेरा उपकार करने वाले हैं, ऐसी परिणति रखना परिग्रह है। गुणव्रत व्रती श्रावक को पंच अणुव्रतों में गुणों की अभिवृद्धि के लिये तीन गुणव्रतों के पालन करने की आवश्यकता है, गुणों की अभिवृद्धि कराने वाले होने के कारण गुणव्रत संज्ञा सार्थक है। आचार्य समन्तभद्र स्वामी गुणव्रतों का वर्णन करते हुए कहते हैं- गुणव्रतों के तीन भेद हैं, दिग्व्रत, अनर्थदण्डव्रत और भोगोपभोग परिमाणव्रत। तीनों के द्वारा व्रतों में गुणों
SR No.538063
Book TitleAnekant 2010 Book 63 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2010
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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