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________________ अनेकान्त 63/2, अप्रैल-जून 2010 एवं "नयचक्र" में रत्नत्रय को आत्मा रूप कहा है। जैन सिद्धांत के अनुसार सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चरित्र से ही मोक्ष की प्राप्ति होती है। ये तीनों "तैल वर्तिकादीपकन्याय" से मोक्ष के कारण माने गये हैं। प्रायः सभी भारतीय चिंतकों ने मुक्ति को जीवात्मा का साध्य या परमपुरुषार्थ निरूपित किया है। मुक्ति मार्ग के ज्ञान के बिना मुक्ति की प्राप्ति संभव नही है। यदि कारागृह में पड़े व्यक्ति को बन्धन के कारणों का कथन किया जाये तो वह भयभीत होने लगता है, किन्तु यदि उसे वहां से मुक्ति का उपाय बताया जाये तो वह आशान्वित होने लगता है। आचार्य उमास्वामी ने सम्यक् दर्शन सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चरित्र की एकरूपता को मुक्ति का मार्ग स्वीकार किया। क्षत्र-चूडामणि में महाकवि वादीभ सिंह सूरि ने भी इन तीनों के समूह को मुक्ति का मार्ग माना है।" सम्यग्दर्शन तत्त्वों के यथार्थ श्रद्धान को सम्यग्दर्शन कहा जाता है। जीव, अजीव, आस्रव, बन, संवर, निर्जरा, एवं मोक्ष ये सात तत्त्व माने गये हैं। समयसार आदि में इन सात के अतिरिक्त "पुण्य" एवं "पाप" को भी ग्रहण करने से नौ संख्या स्वीकार की गयी है।12 भाव यह है कि इन तत्वों के स्वरूप को भलीभाँति जानकर उन पर वैसी ही श्रद्धा करना सम्यक् दर्शन कहलाता है। सम्यक् दर्शन, का यह स्वरुप विवेचन जैनागम के द्रव्यानुयोग के अनुसार है। प्रथमानुयोग तथा चरणानुयोग के अनुसार तो यथार्थ देव, शास्त्र गुरु के श्रद्धान को सम्यक् दर्शन कहा जाता है। सम्यक्-ज्ञान नयचक्र और द्रव्यसंग्रह के अनुसार-आत्मा एवं अन्य वस्तुओं के स्वरूप को ज्ञान की न्यूनाधिकता से हीन तथा सन्देह एवं विपरीतता से रहित, ज्यों का त्यों जानना सम्यग्ज्ञान कहलाता है। “विरुद्धानेककोटिस्पर्शिज्ञानं संशयः" अर्थात् “ऐसा है कि ऐसा है" इस प्रकार परस्पर विरुद्धता पूर्वक दो प्रकार रुप ज्ञान को संशय कहते हैं। जैसे आत्मा अपना कर्ता हे या पर का, यह सीप है या चांदी, रस्सी है या सर्प, लूंठ या या पुरुष आदि। “विपरीतकोटिनिश्चयो विपर्ययः' अर्थात वस्तु-स्वरूप से विरुद्धता-पूर्वक ऐसा ही है। इस प्रकार का एक रूप ज्ञान विपर्यय है। जैसे शरीर को आत्मा, जानना। जैनाचार्यों ने इसके पाँच भेद बताये हैं। -मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मन:पर्ययः और केवलज्ञान। प्रथम दो ज्ञानों को परोक्ष तथा बाद के तीन ज्ञानों को प्रत्यक्ष ज्ञान कहा गया है। मुक्ति की प्राप्ति में सम्यक् ज्ञान उपादान कारण है। सम्यक् चारित्र जो दोष रहित सम्यक् गुणों से युक्त है, सुख-दुःख में भी समान रहता है, आत्मा के ध्यान में लीन रहता है। राग-द्वेष और मोह को हटाकर जो स्वरूप को जानता है वही सम्यक् चारित्र होता है। वस्तुतः संसार को बढ़ाने वाले राग-द्वेषादि अन्तरंग क्रियाओं और हिंसा आदि बहिरंग क्रियाओं से विरक्त होकर आत्मा का अपने स्वरूप में स्थिर हो जाना सम्यक्चरित्र कहलाता है। क्षत्र चूड़ामणि में कहा गया है कि सम्यक् दर्शन और सम्यक् ज्ञान
SR No.538063
Book TitleAnekant 2010 Book 63 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2010
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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