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________________ 52 अनेकान्त 63/2, अप्रैल-जून 2010 है। ऐसा क्यों लिखा है? और भी प्रश्न खड़ा होता है कि भव्यजीव की अपेक्षा संसार का सांतकाल किस कारण से प्राप्त होता है? इस सम्यक्त्व के सिवाय और कोई दूसरा कारण हो तो अवश्य बतलाना चाहिए। इस विषय में पंचाध्यायी उत्तरार्ध में श्लोक 43 में लिखा है कि 'जीव और कर्म का संबन्ध अनादि से चला आया है इसी संबन्ध का नाम संसार है, अर्थात् जीव की रागद्वेषरूप अशुद्ध अवस्था का ही नाम संसार है। यह संसार बिना सम्यग्दर्शन आदि भावों के छूट नहीं सकता है? इसका अभिप्राय यह कि जबतक सम्यग्दर्शन नहीं होता तबतक मिथ्यात्वकर्म आत्मा के स्वाभाविक भावों को ढके रहता है। परन्तु जब सम्यग्दर्शन प्रगट हो जाता है तब वह मिथ्यात्व नष्ट हो जाता है। इस तरह सम्यग्दर्शन आदि भावों से ही संसार छूटता है। भावार्थ:- 'संसरणं संसार:' परिभ्रमण का नाम संसार है। चारों गतियों में जीव उत्पन्न होता रहता है, इसी को संसार कहते है। इस परिभ्रमण का कारण कर्म है। यह संसार तभी छूट सकता है जब कि संसार के कारणों को हटाया जाय। संसार के कारण मिथ्यादर्शनादि है। इनके प्रतिपक्षी सम्यग्दर्शनादि हैं जब ये सम्यग्दर्शनादि भाव आत्मा में प्रकट हो जाते हैं तो फिर इस जीव का संसार भी छूट जाता है। इससे यह स्पष्ट सिद्ध है कि, सम्यग्दर्शन प्राप्ति के समय से लेकर संसार का काल अर्द्धपुद्गलपरावर्तन रह सकता है। परन्तु सर्वार्थसिद्धि में अर्थपुद्गल परावर्तनकाल शेष रहने पर सम्यग्दर्शन की प्राप्ति हो सकती है ऐसा कैसे कहते हैं ? समाधान:- सर्वार्थसिद्धि अ. 2 सूत्र 3 की टीका में बतलाया है कि 'अनादिमिथ्यादृष्टिभव्य के काललब्धि आदि के निमित्त से मोहनीयकर्म का उपशम होता है। यहां पर काललब्धि तीन प्रकार की बतलाई है। (1) अर्द्धपुद्गलपरावर्तन नामक काल के शेष रहने पर प्रथमसम्यक्त्व के ग्रहण करने योग्य होता है। (2) जब बंधनवाले कर्मों की स्थिति अन्त:कोड़ाकोड़ीसागर पड़ती है औ विशुद्ध परिणामों के वश से सत्ता में स्थित कर्मों की स्थिति संख्यातहजारसागरकम अन्तः कोड़ाकोड़ीसागर प्राप्त होती है तब यह जीव प्रथमसम्यक्त्व के योग्य होता है। (3) जो भव्य है, संज्ञी है, पर्याप्तक है और सर्वविशुद्ध है यह प्रथमसम्यक्त्व को उत्पन्न करता है। इन तीन काललब्धियों में से तीसरी काललब्धि (भव्य, संज्ञी पर्याप्तक, सर्वविशुद्ध) का समय से कोई संबन्ध नहीं है। इसका संबन्ध तो नाम कर्मोदय तथा आत्मपरिणामों से है। दूसरी काललब्धि का भी कोई संबन्ध समय से नहीं है, किंतु आत्मपरिणामों की विशुद्धता से है, क्योंकि विशुद्धपरिणामों के कारण ही अन्त:कोड़ाकोड़ीसागरप्रमाण कर्मस्थिति का बंध होता है और पूर्व बंध हुए कर्मों की स्थिति का घात होकर संख्यातहजारसागर कम अन्त:कोड़ाकोड़ीसागरप्रमाण स्थिति रह जाती है। अतः यहां पर काललब्धि का अर्थ है "शुद्धात्मस्वरूपाभिमुख परिणाम की प्राप्ति।" पंचास्तिकाय टीका में कहा भी है:"आगमभाषया कालादिलब्धिरूपं अध्यात्मभाषया शुद्धात्माभिमुखपरिणामरूपं।" 'काल' शब्द का अर्थ 'विचाररूप परिणाम' करना अयुक्त भी नहीं है, क्योंकि
SR No.538063
Book TitleAnekant 2010 Book 63 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2010
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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