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________________ So अनेकान्त 63/2, अप्रैल-जून 2010 बार भी समाप्त हो जाती है। इस प्रकार प्रत्येक पुद्गल परावर्तन के आधा काल बीत जाने पर और शेष आधा काल रह जाने पर प्रथम काललब्धि पुनः आती रहती है। सम्यग्दर्शन प्राप्त हो जाने पर संसार के स्थिति अर्द्ध पुद्गल परावर्तन मात्र शेष रह जाती है। इस प्रकार अर्थ करने पर सर्वार्थसिद्धिकार के अर्थ की एवं धवलादि ग्रंथों के कथनों की भी संगति बैठ जाती है। सर्वार्थसिद्धि टीका के शब्द है : "कालेऽर्द्धपुद्गलपरिवर्त्तनापरावर्तनाख्येऽवशिष्टप्रथमसम्यक्त्वग्रहणस्य योग्यो भवति नाधिके इति। इयमेका काललब्धिः।" अर्थ- अर्द्धपुद्गल परिवर्तन काल अवशिष्ट रहने पर प्रथम सम्यक्त्व ग्रहण की योग्यता होती है। अधिक काल अवशिष्ट रहने पर नहीं रहती, यह एक काललब्धि है। यहां यह ध्यान देने योग्य विशेष बात है कि इस कथन में संसार शब्द नहीं है। अतः "संसारकाल अर्द्धपुद्गल परावर्तन अवशिष्ट रहने पर" ऐसा अर्थ किस आधार पर किया जा सकता है ? यदि पूज्यपादस्वामी एवं श्री अकलंक देव को संसार के अर्द्ध पुद्गल परावर्तन कालके शेष रहने की बात इष्ट होती तो वे संसार शब्द का प्रयोग अवश्य करते। जैसा कि धवल ग्रंथ के उद्धरणों में सर्वत्र संसार शब्द का प्रयोग किया गया है। अन्यत्र भी जैसे "तद्विविधपरिणामे उत्कृष्टः अर्द्धपुद्गलपरावर्तनकालसंसारे स्थित्वा पश्चात् मुक्तिं गच्छतीत्यर्थः।" इस वाक्य में संसार शब्द का प्रयोग किया गया है। इस वाक्य का अभिप्राय यह है कि प्रथम सम्यक्त्व से मिथ्यात्व उदय के कारण गिरकर अधिक से अधिक अर्द्धपुद्गल परावर्तन काल तक संसार में रहकर पश्चात् मोक्ष जाता है। इससे यह स्पष्ट होता है कि यह सम्यक्त्व परिणाम में ही शक्ति है कि व अनंत संसार काल को छेदकर अर्द्धपुद्गल परावर्तन काल कर देता है। सम्यक्त्वोत्पत्ति की योग्यता का कथन कार्तिकेयानुप्रेक्षा गाथा 307 में है जो इस प्रकार है: चदुग्गदि-भव्वो सण्णी सुविसद्धो जग्गमाण-पज्जते। संसार-तडे णियड़ो णाणी पावेइ सम्मत्तं॥ 307॥ (स्वा. का.) इनकी संस्कृत टीका में "संसार तट निकट" का अर्थ निम्न प्रकार दिया है: "संसारतटे निकटः सम्यक्त्वोत्पत्तितः उत्कृष्टेन अर्द्धपुद्गलपरावर्तनकालपर्यंत संसार स्थायीत्यर्थः" अर्थ- संसारतट निकट" इस का अभिप्राय है कि सम्यक्त्वोत्पत्ति से उत्कृष्ट संसारस्थिति अर्द्ध पुद्गल परिवत्तन काल पर्यंत रह जाती है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि सम्यक्त्व हो जाने पर उत्कृष्ट संसार काल अर्द्ध पुद्गल परावर्तन मात्र रह जाता है न कि सम्यक्त्वोत्पत्ति से पूर्व संसार काल अर्द्धपुद्गल परिवर्तन मात्र रह जाता है; क्योंकि सम्यक्त्व परिणाम में ही वह शक्ति है कि अनंत संसार काल को काटकर अर्द्धपुद्गल परावर्तन मात्र कर देता है। यह ही सम्यक्त्व का वास्तविक महत्त्व जहाँ भी आचार्यों ने "संसार" शब्द का प्रयोग नहीं किया है, वहां "अर्द्धपुद्गल
SR No.538063
Book TitleAnekant 2010 Book 63 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2010
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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