SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 103
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अनेकान्त 63/2, अप्रैल-जून 2010 इस विषय पर उनसे आग्रह किया एवं कुछ अनबन सा हुआ, तो उन्होंने सात सौ घर के श्रावकों को कड़ी आज्ञा दे दी कि इस रत्नाकर को कहीं भी आहार नहीं दिया जाय। तब रत्नाकर अपनी बहन के घर भोजन करते हुए, जिनधर्म से रूसकर 'आत्मज्ञानी को सभी जाति, कुल बराबर हैं, ऐसा समझकर गले में लिंग बांधकर लिंगायत बन गया और वहाँ पर 'वीर शैवपुराण, वसवपुराण, सोमेश्वर शतक' आदि की रचना की। पाठक स्वयं निर्णय करें कि क्या ऐसे विकृत चरित्र व्यक्ति आगम का रचयिता हो सकता है ? जिस लेखक की जैनधर्म पर श्रद्धा ही न हो, उसका लिखा ग्रंथ कभी प्रामाणिक नहीं हो सकता। ४. प्रस्तावना के द्वितीय कथानक के अनुसार- एक बार रत्नाकर अपने को अपमानित समझकर चला गया। जाते-जाते एक नदी को पार कर रहा था, तब भक्तों ने शपथ पूर्वक प्रार्थना की तो भी 'मुझे ऐसे दुष्टों का संसर्ग नहीं चाहिये। मैं आज ही इस जैनधर्म को तिलांजलि देता हूँ।' यह कहकर नदी में डूब गया और एक पर्वत पर चला गया। बाद में राजा के आग्रह पर काव्य में रस दिखाने के लिए भरतेश वैभव की रचना की। इस कथन से यह स्पष्ट है कि रत्नाकर ने जैनधर्म को तिलांजलि देकर मात्र राजा को प्रसन्न करने के लिए अपनी मर्जी के अनुसार इस ग्रंथ की रचना की थी। अतः ऐसा ग्रंथ कभी प्रामाणिक हो ही नहीं सकता। ५. प्रस्तावना पृ. 19 पर कहा है कि इस ग्रंथ की रचना में कवि ने अन्य कवियों का अनुकरण नहीं किया है। जो वर्णन उसे स्वयं को पसन्द नहीं आया था, उसे और ढंग से जहाँ वर्णन करना चाहता था, वहाँ उसे बदलकर पाठकों को अरुचि उत्पन्न नहीं हो इस ढंग से वर्णन करता है। इस प्रकरण से स्पष्ट है कि रत्नाकर ने इस ग्रंथ को मात्र लोकप्रसिद्धि के लिए रचा था, तथ्य प्रकाशन के लिए नहीं। यहाँ तक रचयिता कवि की अप्रामाणिकता का वर्णन किया गया अब ग्रंथ के उन प्रसंगो का वर्णन किया जाता है जो आगम सम्मत नहीं है। 1. भाग 1 पृ. 141 पर कहा है कि भरतेश की रानियों की संख्या 96 हजार हैं जबकि अभी महाराजा भरत चक्रवर्ती नहीं बने थे। यह प्रकरण बिल्कुल आगम सम्मत नहीं है। 2. भाग 1 पृ.17 पर लिखा है कि महाराजा भरत ने आत्मप्रवाद नाम के ग्रंथ की रचना की थी। यह प्रकरण किसी भी पुराण से मेल नहीं खाता। 3. भाग 1, पृ. 168 पर लिखा है कि वे रानियाँ भरतेश के द्वारा निर्मित अध्यात्मसार को पढ़ रही हैं। अर्थात् इस ग्रंथ की रचना भी महाराजा भरत ने की थी। यह प्रकरण भी बिल्कुल गलत है। 4. भाग 1, पृ. 169 पर लिखा है कि कभी वे शुद्धोपयोग में मगन होते हैं तो कभी शुद्धोपयोग के साधनभूत शुभोपयोग का अवलंबन लेते थे। अर्थात् रत्नाकर कवि को भी इतना भी आगम ज्ञान नहीं था कि क्या कोई राजा राज्य को करते हुए शुद्धोपयोग में मग्न हो सकता है?
SR No.538063
Book TitleAnekant 2010 Book 63 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2010
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy