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________________ संपादकीय जैन धर्म की प्रतिष्ठा वात्सल्यनिधि तपोपूत परमपूज्य मुनिराजों, निस्पृह श्रुताराध क विद्वानों और उदार सद्गृहस्थों पर आश्रित है। भारतवर्ष के धार्मिक, सांस्कृतिक एवं नैतिक जीवन में इनका चिरस्थायी प्रभाव है और रहेगा अब संपूर्ण भूमण्डल की यह आम धारणा बनती जा रही है कि अपने उदात्त गुणों के कारण भारतवर्ष शीघ्र ही सम्पूर्ण जगत् का नेतृत्व करेगा। यह यथार्थ है कि भारतवर्ष न तो कतिपय तथाकथित विकसित देशों से बढ़कर अणुबम या मानव को मृत्युमुख में धकेलने वाले अन्य मारक शस्त्रास्त्रों के विस्तार में रुचि रखेगा और न ही लौकिक सुख साधनों में उनसे आगे निकल सकेगा। किन्तु हमारे ऋषि-मुनियों, विद्वान मनीषियों एवं उदार गृहस्थों ने जो जीवन जीने की कला हमें उत्तराधिकार के रूप में प्रदान की है, उससे हम विश्व का नैतिक नेतृत्व करने में समर्थ हो सकेंगे। यह तभी संभव है जब हमारे ऋषि-मुनि, विद्वान् मनीषी एवं सद्गृहस्थ अपने वात्सल्यभाव, निस्पृह चरित्र और औदार्य को न त्यागें। यह बड़ी ही दु:खद स्थिति है कि वर्तमान में कतिपय साधु-सन्त वात्सल्य का उपदेश तो खूब देते हैं, किन्तु उनके आचरण में वात्सल्य की कणिका भी दृष्टिगोचर नहीं होती है। अभी एक ख्यातनामा साधु के दर्शन करने एवं उनका प्रवचन सुनने का अवसर मिला। उन्होंने जैन एवं जैनेतर समाज को व्यसनमुक्त होने का उपदेश दिया तथा प्रत्येक अमंगल एवं कष्ट से बचने के लिए अपने नाम की माला फेरने की बात कही। पर देखने में आया कि अन्यत्र एक सभा में उन्होंने अपने ही साधर्मी साधु पर न केवल व्यंग्य / कटाक्ष ही किये अपितु समाज की दलगत राजनीति का लाभ उठाकर उनकी सीधी निन्दा भी की। निन्दारस में आकण्ठ अवगाहित होकर उनके अनेक सत्कार्यों में भी छिद्रान्वेषण किये। समाज के कुछ दिशाहीन नेतृवर्ग को भड़काकर अपना उल्लू सीधा करने वाले साधु, विद्वानों एवं गृहस्थों को यह समझने की आवश्यकता है कि यह खेल आत्मघाती है। एक सार्वजनिक सभा में उन्होंने अपने गुरु की जय बोलकर उनकी चर्चा का तो मखौल उड़ाया ही, आचार्य उमास्वामी द्वारा विरचित तत्त्वार्थसूत्र के उपयोगो लक्षणम्' सूत्र को भी उन्होंने गलत करार दिया। वे अन्य साधुओं को आगमानुसारी चर्याधारी देखना चाहते हैं, परन्तु स्वयं आगमानुसार नहीं चलना चाहते हैं यशस्कीर्ति नामकर्म के उदय में उन्हें यह विस्मृत नहीं करना चाहिए“यत्रोभयो समो दोषो परिहारोपि वा समः । नैको पर्यनुयोक्तव्यः तादृगर्थविचारणे ॥" मेरा अनुरोध है साधु परमेष्ठियों से, कि वे पारस्परिक कटाक्षों से समाज का माहौल न बिगाड़ें, विद्वानों से भी अनुरोध है कि वे यद्वा तद्वा साधुविकृत साहित्य का संपादन न करें तथा उदार गृहस्थ भी शास्त्र जी के नाम पर आगमविरुद्ध साहित्य को न छपायें। यदि समाज का माहौल नही सुधारा जायेगा तो भारतवर्ष विश्व का नेतृत्व करेगा यह दिवास्वप्न ही रह जायेगा। जयकुमार जैन
SR No.538063
Book TitleAnekant 2010 Book 63 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2010
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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