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________________ अनेकान्त 63/1, जनवरी-मार्च 2010 उपदेश देते हैं। ऐसे तत्त्वादि के श्रद्धान से अरहंतादि के सिवा अन्य देवादिक झूठ भासित हों तब स्वयमेव उनका मानना छूट जाता है, उसका भी निरूपण करते है।' (वही पृष्ठ-279)। उपरोक्त विवरण से यह स्पष्ट है कि वीतराग श्रमण परंपरा में क्षेत्रपाल, पद्मावती, लक्ष्मी और सरस्वती और सूर्य-चंद्रमा जैसे ज्ञापक ग्रहों की शांति हेतु उनकी पूजा-भक्ति का कोई विधान नहीं है। यह तीव्र कषायजन्य गृहीत मिथ्यात्व का पोषक और पापरूप है। अरहंतादिक की निष्काम भक्त्ति से कभी कोई देवता-अति अनुकूल परिस्थितियों एवं पुण्य के उदय से कुछ उपकार करे तो करे, इसको कोई नियम नहीं। परन्तु अरहंतदेव को कुदेव न बनाए और कुदेव को देव न बनाए। (9) प्रथमानुयोग के पर-उपकारक उद्धरण प्रथमानुयोग के शास्त्रों में उपकारी के उपकार के प्रति कृतज्ञता के अनेक उदाहरण आये हैं। कृतज्ञता सहज मानवीय गुण हैं। धार्मिकजन और विशेषकर सम्यग्दृष्टि नियम से उपकारी के प्रति कृतज्ञ रहते हैं और आवश्यकता या अन्यथा भी उपकार का ऋण उतारते हैं। यही उत्कृष्ट परंपरा है। भगवान शान्तिनाथजी के पूर्व भवों में, 7वें भवपूर्व स्मितसागर वत्सकावती नगरी के राजा के दो पुत्र अपराजित बलभद्र और अनन्तवीर्य वासुदेव हुये। अपराजित शांतिनाथ का जीव था और अनन्तवीर्य उनके भाई का जीव था जो नरक गया। स्मितसागर का जीव धरणेन्द्र हुआ। धरणेन्द्र के जीव ने नरक जाकर अपने पूर्व पुत्र के जीव को संबोधित किया और उसके सम्यक्त्व का निमित्त बना। नरक से निकलकर अनन्तवीर्य का जीव भरतक्षेत्र में मेघनाद हुआ, मेघनाद ने मुनिदीक्षा ली। ध्यानरत मुनि पर सुकण्ठ असुरकुमार ने उपसर्ग किया, जिसका निवारण धरणेन्द्र ने किया। इस प्रकार स्मितसागर के जीव ने अनन्तवीर्य का दो बार उपकार किया। तीसरे भव पूर्व भगवान शान्तिनाथ का जीव मेघरथ कुमार था और उसके भाई का जीव दृढ़रथ कुमार था। वे धनरथ तीर्थकर के पुत्र थे। एक बार तो कुक्कटों को लड़ते देख मेघरथ कुमार ने अपने अवधिज्ञान से उनके पूर्वभवों को देखा। वे दोनों भाई थे और एक बैल के विवाद पर लड़ मरे। अनेक भवों तक ऐसा करते रहे। मेघरथ ने दोनों कुक्कटों को मृदु संबोधन से समझाया। दोनों शांत हुए, बैरभाव गला और वे मर कर भूत जातीय व्यंतर देव हुए। इन देवों ने उपकार के कृतज्ञ भाव से मेघरथ की पूजा की और अपने विमान में दोनों भाईयों को बैठाकर ढाईद्वीप की यात्रा कराई और स्वर्गलोक चले गये। इस प्रकार अपने उपकारी के उपकार का सम्मान/ कृतज्ञता व्यक्त कर बहुमान किया। ___ तुलसी रामायण के अनुसार मांस भक्षी जटायु ने करुणा भाव से सीता की रक्षा हेतु अपने प्राण न्यौछावर कर दिये। मृत्युपाश में जटायु राम की गोदी में था। राम ने जीवन देने की भावना भायी और पितृवत् सम्मान दिया। किन्तु जटायु को राम के हाथों में ही मरना स्वीकार था। जटायु को परमधाम मिला, यह उसकी भक्ति का प्रसाद था। समस्त वैदिक समाज जटायु के बलिदान को श्रद्धा-सम्मान की दृष्टि से देखता है; किन्तु कभी भी जटायु
SR No.538063
Book TitleAnekant 2010 Book 63 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2010
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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