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________________ अनेकान्त 61/1-2-3-4 167 2.2 जैन पुराणों में अयोध्या वर्णन जैन पौराणिक मान्यता के अनुसार सभ्यता के आदिकाल में पहले कल्पवृक्षों से ही मनुष्यों की सभी आवश्यकताएं पूरी होती थीं। चौदहवें तथा अन्तिम कुलकर नाभिराज के समय में कल्पवृक्षों का अभाव होने पर भोगभूमि की स्थिति नष्ट हो गई तथा कर्मभूमि का प्रादुर्भाव हुआ। इसी सन्धिकाल में जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में विजयार्ध पर्वत के दक्षिण की ओर स्थित मध्य आर्यखण्ड के राजा नाभिराज और उनकी रानी मरुदेवी के पुत्र के रूप में आदि तीर्थङ्कर भगवान् ऋषभदेव का जन्म हुआ। आचार्य जिनसेन द्वारा 900 ईस्वी में रचित 'आदिपुराण' में भगवान् ऋषभदेव के स्वर्गावतरण तथा गर्भावतरण का भव्य वर्णन किया गया है। 'आदिपुराण' के अनुसार तीर्थङ्कर भगवान् के जन्म से पूर्व ही विश्व की प्रथम नगरी अयोध्या का इन्द्र के नेतृत्व में स्वयं देवताओं ने निर्माण किया था। उन देवों ने इस नगरी को स्वर्गपुरी के समान सुन्दर इसलिए भी बनाया था ताकि ऐसा लगे मानो स्वर्ग लोक ही मध्यलोक में प्रतिबिम्बित हो गया हो। 'आदिपुराण' के श्लेषात्मक कथन में स्वर्ग 'त्रिदशावास' (तीस व्यक्तियों के रहने योग्य स्थान) मात्र था किन्तु पृथ्वीलोक में निर्मित अयोध्या नगरी इतनी विस्तृत थी कि इसमें सैकड़ों, हजारों मनुष्य रह सकते थे - सुराः ससंभ्रमाः सद्यः पाकशासनशासनात्। तां पुरीं परमानन्दाद् व्यधुः सुरपुरीनिभाम्॥ स्वर्गस्यैव प्रतिच्छन्दं भूलोकेऽस्मिन्निधित्सुभिः। विशेषरमणीयैव निर्ममे सामरैः पुरी। स्वस्वर्गस्त्रिदशावासः स्वल्प इत्यवमत्य तम्। परश्शतजनावासभूमिकां तां नु ते व्यधुः॥" नगरविन्यास की दृष्टि से अयोध्या का निर्माण राजधानी नगरी के रूप में किया गया था। इस नगरी के मध्य भाग में राजभवन बनाया गया था। नगरी के चारों ओर वप्र (धूलिकोट), प्राकार (चार मुख्य द्वारों सहित पत्थर के बने हुए कोट) तथा परिखा (खाई) का निर्माण हुआ था। आदिपुराणकार जिनसेन ने भी परम्परागत 'अष्टाचक्रा' अयोध्या के दुर्गनगर स्वरूप को मध्यकालीन नगर वास्तु से जोड़ते हुए कहा है कि 'अयोध्या' नाग से ही अयोध्या नहीं थी बल्कि सामरिक दृष्टि से कोई भी शत्रु उस पर युद्ध नहीं कर सकता था। 'अरिभिः योद्धं न शक्या - अयोध्या'।'' उसे 'साकेत' इसलिए कहते थे क्योंकि वह अपने भव्य भवनों के लिए प्रशंसनीय थी तथा उन भवनों पर फहराती हुई पताकाओं द्वारा
SR No.538061
Book TitleAnekant 2008 Book 61 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2008
Total Pages201
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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