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________________ अनेकान्त 60/1-2 83 सल्लेखना का महत्त्व एवं फल __ भगवती आराधना में सल्लेखना (भक्तप्रत्याख्यान) के महत्त्व एवं फल का कथन करते हुए लिखा है कि वे व्यक्ति स्वर्गों में उत्कृष्ट भोगों को भोगकर च्युत होने पर मनुष्य भव में जन्म लेते हैं और वहाँ भी समस्त ऐश्वर्य को प्राप्त करते हैं। फिर उसे त्यागकर जिनोपदिष्ट धर्म का पालन करते हैं वे शास्त्रों का अनुचिन्तन करते हैं, धैर्यशाली होते हैं, श्रद्धा; संवेग और शक्ति सम्पन्न होते हैं। परीषहों को जीतते हैं, उपसर्गों को निरस्त करते हैं, उनसे अभिभूत नहीं होते हैं। इस प्रकार शुद्ध सम्यग्दर्शन पूर्वक यथाख्यात चारित्र को प्राप्त करके ध्यान में मग्न होकर सक्लेशयुक्त अशुभ लेश्यओं का विनाश करते हैं। अन्त में शुक्ल लेश्या से सम्पन्न होकर शुक्ल ध्यान के द्वारा संसार का क्षय करते हैं तथा कर्मों के कवच से मुक्त हो, सब दुःखों को दूर करके मुक्ति को प्राप्त होते हैं। आचार्य समन्तभद्र के अनुसार जीवन के अन्त में धारण की गई सल्लेखना से पुरुष दुःखों से रहित हो निःश्रेयस रूप सुख सागर का अनुभव करता है, अहमिन्द्र आदि को पद को पाता है तथा अन्त में मोक्ष सुख को भोगता है। अमृतचन्द्राचार्य ने सल्लेखना को धर्म रूपी धन को साथ ले जाने वाला कहा है। श्री सोमदेवसूरि ने सल्लेखना का महत्त्व प्रतिपादित करते हुए कहा है कि सल्लेखना के बिना जीवन भर का यम, नियम, स्वाध्याय, तप, पूजा एवं दान निष्फल है। जैसे एक राजा ने बारह वर्ष तक शस्त्र चलाना सीखा किन्तु युद्ध के अवसर पर शस्त्र नहीं चला सका तो उसकी शिक्षा व्यर्थ रही, वैसे ही जो जीवन भर व्रतों का आचरण करता रहा किन्तु अन्त में मोह में पड़ा रहा तो उसका व्रताचरण निष्फल है। लाटी संहिता में कहा गया है कि वे ही श्रावक धन्य हैं, जिनका समाधिमरण निर्विघ्न हो जाता है। उमास्वामि श्रावकाचार, श्रावकाचारसारोद्धार, पुरुपार्थानुशासन, कुन्दकुन्दश्रावकाचार, प. पद्मकृत श्रावकाचार तथा प. दौलतरामकृत क्रियाकोष में सल्ल्लेखना को जीवन भर के तप, श्रृत एव व्रत का फल तथा महार्द्धिक देव एव इन्द्रादिक पदों को
SR No.538060
Book TitleAnekant 2007 Book 60 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2007
Total Pages269
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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