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________________ 75 अनेकान्त 60/1-2 अन्त में मैं यशस्तिलकचम्पूकार आचार्य सोयदेवसूरि के उस मङ्गल पद्य को उद्धृत कर अपनी बात पूरी करना चाहूँगा, जिसमें उन्होंने जैनों के लिये यह स्पष्ट निर्देश दिया है कि अपने सम्यक्त्व और व्रतों में कोई दूषण न लगता हो तो अन्य परम्परा को स्वीकार करने से परहेज नहीं करना चाहिये। वे लिखते हैं कि सर्व एव हि जैनानां प्रमाणं लौकिको विधिः। यत्र सम्यक्त्वहानिर्न यत्र न व्रत दूषणम् ।। प्रोफसर जैनदर्शन, का. हि. वि. वि. निर्वाण भवन, बी 2/249, लेन नं. 14 रवीन्द्रपुरी, वाराणसी-221005 दूरभाष : 0542-2315323 देहे निर्ममता गुरौ विनयता नित्यं श्रुताभ्यासता। चारित्रोज्ज्वलता महोपशमता संसारनिर्वेदता।। अन्तर्बाह्यपरिग्रहव्यजनता धर्मज्ञता साधुता। साधो! साधुजनस्य लक्षणमिदं संसार विच्छेदनम् ।। - सम्यक्त्वकौमुदी, 280 शरीर में ममता का अभाव, गुरुजनों के प्रति विनयसम्पन्नता, निरन्तर शास्त्राभ्यास, चारित्र की निर्मलता, अत्यन्त शान्तवृत्ति, संसार से उदासीनता आन्तरिक एवं बाह्य परिग्रह का त्याग, धर्मज्ञता और साधुता- ये साधुजनों के लक्षण संसार विच्छेद के कारण हैं।
SR No.538060
Book TitleAnekant 2007 Book 60 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2007
Total Pages269
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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