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________________ अनेकान्त 60/1-2 73 इसी प्रकार अपवित्रः पवित्रो वा सुस्थितो दुःस्थितोऽपि वा। ध्यायेत् पञ्चनमस्कारं सर्वपापैः प्रमुच्यते।। अथवा अपवित्रः पवित्रो वा सर्वावस्थां गतोऽपि वा। यः स्मरेत् परमात्मानं स बाह्याभ्यन्तरे शुचिः।। आदि पद्यों पर विचार करें तो ये सभी सन्दर्भ किसी पद स्रोत से गृहीत प्रतीत होते हैं क्योंकि शब्दराशि अनन्त है और उस अनन्त शब्दराशि में से बहुत कुछ विविध सम्प्रदायों द्वारा ग्रहण किया जा सकता है, किया गया है और किया जाता रहेगा। ___ हॉ! कुछ बातों पर विचार अवश्य किया जाना चाहिये और वह यह कि वैदिक परम्परा मूलतः प्रवृत्तिवादी परम्परा है, क्रियाकाण्ड में विश्वास रखने वाली है, परन्तु इसे ही सर्वथा स्वीकार नहीं किया जा सकता है, क्योंकि 'बाहुल्येन व्यपदेशा भवन्ति' इस युक्ति के आधार पर उक्त कथन किया गया है। कुछ अंशों में वैदिक परम्परा में भी आरण्यक संस्कृति के दर्शन हमें प्राचीन साहित्य में अनेक स्थलों पर मिल जायेंगे। वानप्रस्थ आश्रम और संन्यास आश्रम-इन दो आश्रमों का जीवन निवृत्तिपरक ही है और इनका उद्देश्य ही यह है कि क्रमशः मोह-ममता से निवृत्त होकर आत्म-साधना करना। वस्तुतः यह एक प्रवाह है, जो परम्पराओं के माध्यम से हमें विरासत में प्राप्त हुआ है, हो रहा है और भविष्य में भी होगा, इससे इन्कार नहीं किया जा सकता है। दूसरी ओर श्रमण परम्परा है। यह सामान्य रूप से निवृत्तिपरक मानी जाती है और है भी, किन्तु इस सबके बावजूद आज उसे सर्वथा निवृत्तिपरक परम्परा कहना सम्भव नहीं है, क्योंकि इस परम्परा में भी अब शादी-विवाह अथवा अन्य अवसरों पर हवन आदि क्रियाकाण्ड प्रचलन में आ गये है, जो मूलतः वैदिक परम्परा के अङ्ग हैं।
SR No.538060
Book TitleAnekant 2007 Book 60 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2007
Total Pages269
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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