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अनेकान्त 60/1-2
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सन्नाटा छाया रहता है। आगम में अल्पज्ञान हो तो विवाद पैदा करता है, यदि तत्त्व की पकड़ दोनों नयों से भली भांति की गयी है, और कौन नय कब प्रधान है कब गौण है, इस सापेक्षता को मुनि श्री अपने भेद विज्ञान विवेक से भली-भांति जानते हैं। कहीं कोई विवाद, शंका और संदेह नहीं उठता जब आपकी ज्ञानधारा अविरल प्रवाहित होती है। श्री विशद्धसागर जी ऐसे जैन दि. संत हैं जिनकी स्यादवादवाणी रूप गंगा, निश्चय और व्यवहार नय-कूलों को संस्पर्शित करती हुई प्रबुद्ध जनों के हृदय में उतर जाती है। अध्यात्म के सूक्ष्म भावों को सहजता से व्याख्यापित कर देना केवल पांडित्य से सम्भव नहीं है, वहाँ सम्यक्त्व की शुद्धात्मानुभूति और समत्व-भावों की फलश्रुति काम करती है। __इस भाष्यकार संत में मैंने एक निरालापन संत व्यक्तित्व की झलक देखी है। आज जब एक आचार्य संघ के साधुगण दूसरे आचार्य-संघ के साधु गणों से आत्मीय सौजन्य नहीं रख पा रहे हैं। इतना ही नहीं एक ही कुल के साधु गणों में आत्मीय वात्सल्य दिखाई नहीं देता, ऐसे में यदि दो संघों के साधुओं में 'मिलन' होता है तो वह एक महोत्सव से कम नहीं लगता। उस मिलन-महोत्सव के क्षणों में श्रावक भी प्रसन्नता का अनुभव करता है। अध्यात्मयोगी विशुद्धसागर जी जिनके दीक्षा गुरु आचार्य विरागसागर जी महाराज हैं परन्तु अपने प्रवचनों में उनकी अटूट श्रद्धा संतशिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी महाराज के लिए मुखर होती रहती है। वे प्रतिवर्ष आ० विद्यासागर जी का संयमोत्सव वर्ष मंच से मनाते हैं। यह संतसौहार्द मुनि श्री विशुद्धसागर की अध्यात्म-चेतना का एक प्रबल पक्ष है। कोई पक्ष-व्यामोह नहीं, जहाँ केवल वीतरागता को नमन है- चाहे वे आप विरागसागर हों या आ० विद्यासागर ।
इधर विगत 20 वर्षों से अनेक राष्ट्रीय स्तर को विद्वत्संगोष्ठियाँ अनेक आचार्य/उपाध्याय और मुनियों के पावन सान्निध्य और उनके आशीर्वाद व प्रेरणा से समायोजित हो रही हैं जहाँ देशभर के मनीषी एक मंच पर बैठकर अपने जैनदर्शन/कर्म और श्रावकाचार पर गवेषणात्मक प्रस्तुतियाँ देकर शोध-पत्र पढ़ते हैं। परन्तु ऐसी कोई जैन