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अनेकान्त 60/1-2
हमारे आदि ग्रन्थ ऋग्वेद में भाषा की दिव्योत्पत्ति का सिद्धान्त दर्शाया गया है और कहा गया है जिस प्रकार परमात्मा ने मानव सृष्टि की सृजना की, उसी प्रकार मानव के लिए एक परिष्कृत भाषा भी दी इस मत में प्रत्येक कार्य के मूल में दैवी शक्ति की सत्ता मानी जाती है । "
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शब्दकल्पद्रुम में भाषा उसे माना गया है, जिसका प्रयोग शास्त्र एवं व्यवहार के लिए होता है ।" न्यायकोशकार ने भाषा को सीमित स्वरूप में परिभाषित करते हुए न्याय के शपथ सूचक वाक्यों को भाषा माना है। वहीं जैनाचार्यों ने आचारशास्त्र की दृष्टि से शुद्धता, बोधगम्यता संक्षिप्तता, मधुरता आदि का निर्वाह जहां होता है, उसी को भाषा माना है । परन्तु यह दृष्टि भाषा विज्ञान से भिन्न है । संस्कृत-हिन्दी शब्द कोशकार वामन शिवराम आप्टे ने किसी जन समुदाय द्वारा अपने भावों एवं विचारों को व्यक्त करने के लिए मुह से उच्चारण किए जाने वाले शब्दों एवं वाक्यों के समूह को भाषा माना है । 10
भाषा का अर्थ है - स्पष्ट वाणी । स्पष्ट वाणी से तात्पर्य उस ध्वनि से है, जो उच्चारण अवयवों द्वारा साफ-साफ उच्चारित हो, साथ ही साथ अर्थपूर्ण भी हो, दूसरे शब्दों में अर्थयुक्त समास उच्चरित ध्वनियों की संज्ञा ही भाषा है। इससे स्पष्ट होता है कि भाषा का प्रयोक्ता मनुष्य ही होता है क्योंकि अन्य जीवों में यह क्षमता नहीं होती । इसी कारण इनको भाषा - विज्ञान के अन्तर्गत समाविष्ट नहीं किया गया है । "
महान् भाषा शास्त्री पाणिनी ने 'व्यक्तायां वाचि' शब्द का ही प्रयोग करते हुए व्यक्त का अभिप्राय स्पष्ट बोलना लगाया हैं और इसी कारण व्यक्त वाणी को "मनुष्य की वाणी" तथा मानव समाज तक ही सीमित रखा गया है। 12
भारतीय आर्य भाषाओं का विधिवत् इतिहास तो हमें प्रामाणिक रूप से उपलब्ध नहीं है, तथापि इसकी साधारण रूपरेखा ऋग्वेद से आज तक उपलब्ध है। कुछ विद्वानों ने अनार्य भाषाओं को छोड़कर संसार भर