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भाषा - विकास एवं अपभ्रंश
- सूरजमल राव
भाषा, मनुष्य की अभिव्यक्ति का सर्वाधिक महत्वपूर्ण एवं व्यापक वाचिक माध्यम माना गया है। वाचिक माध्यम का तात्पर्य है - वाणी में सहायक माध्यम । वाणी वक्ता के मुह से ध्वनियों के रूप में व्यक्त होती है । परन्तु जो ध्वनियों के रूप में अभिव्यक्त नहीं हो कर वक्ता के मानस में घुमड़ती रहे, वह भी भाषा ही मानी जाती है । भाषा एक वाचिक व्यवस्था है, जो मौन में मानसिक एवं व्यक्त होने पर ध्वनि रूप धारण करती है । यह सामाजिक सम्पर्क में अनिवार्य एक वैयक्तिक कर्म है ।
मानव-जीवन में भाषा का महत्त्व सर्वविदित है क्योंकि सम्पूर्ण मानवीय व्यवहार भाषा के माध्यम से सम्पन्न होते हैं। मनुष्य की सम्पूर्ण अभिव्यक्ति भाषा द्वारा होती है। मानव चाहे जिस देश, जाति या वर्ग का हो, सभ्य-शिष्ट या असभ्य-अशिष्ट, ग्राम्य हो या नागरिक-मनुष्य मात्र द्वारा प्रयुक्त व्यक्त वाक् को भाषा कहा जाता है। चाहे उसमें ध्वनियों शब्दों, वाक्यों या अर्थो की कितनी भी विभिन्नता क्यों न हो । हां, पशु-पक्षियों की ध्वनियां तथा इंगित और चेष्टादि द्वारा की गयी अभिव्यक्ति इसके अन्तर्गत नहीं आती है ।
भाषा शब्द संस्कृत की "भाष्" धातु से बना है, जिसका प्रयोग व्यक्त वाणी ( व्यक्तायां वाचि) के लिए किया जाता है। पशु-पक्षियों की बोली तथा मानवकृत इंगितों व संकेतों की भाषा वस्तुतः भाषा कहलाने की अधिकारिणी नहीं है, क्योंकि वह " अव्यक्त वाक्" है। मनुष्य द्वारा वाणी से उच्चारित, ध्वनि संकेतों से गठित, शब्दमयी भाषा ही वस्तुतः भाषा हैं क्योंकि उसमें स्पष्टता, असंदिग्धता तथा सुगमता है ।'
वर्तमान में जिस शास्त्रीय विधा में भाषा का अध्ययन किया जाता