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________________ अनेकान्त 60/1-2 इसलिए अहिंसा को परम धर्म कहा गया है। संसार में जल-थल और आकाश में सर्वत्र सूक्ष्म-जीव भरे हुये हैं, इसलिए बाह्य आचरण में पूर्ण अहिंसक होना सम्भव नहीं है, परन्तु यदि अन्तरंग में समता हो और बाहर की प्रवृत्तियाँ यत्नाचार पूर्वक नियंत्रित कर ली जायें, तो बाह्य में सूक्ष्म जीवों का अपरिहार्य घात होते हुये भी, साधक अपनी आन्तरिक पवित्रता के बल पर अहिंसक बना रह सकता है। ___ क्रोध-मान-माया-लोभ की भावना को मर्यादित करने वाले पवित्र विचार और सद्-संकल्प ही अहिंसा के सुफल हैं। अहिंसा का क्षेत्र संकुचित नहीं है, उसका प्रभाव भीतर और बाहर दोनों ओर होता है। दार्शनिक परिभाषा में 'चित्त का स्थिर बने रहना अहिंसा है' या 'जीव का अपने साम्य-भाव में संलग्न रहना अहिंसा है'। अंतरंग में ऐसी आंशिक समता के बिना अहिंसा की कल्पना नहीं की जा सकती। अपरिग्रह प्रायः सभी धर्मों की आचार-संहिताओं में परिग्रह-लिप्सा को सभी पापों की जड़ बताया गया है। एक महान जैन आचार्य ने परिग्रह की विस्तृत परिभाषा करते हुए लिखा है- 'मनुष्य परिग्रह के लिये ही हिंसा करता है। उसी के निमित्त ही झूठ बोलता है और उसी अभिप्राय से चोरी के कार्य करता है। कशील भी व्यक्ति के जीवन में परिग्रह की लिप्सा के माध्यम से ही आता है। इस प्रकार परिग्रह-लिप्सा आज के अर्थ-प्रधान युग का सबसे बड़ा पाप है। उसी के माध्यम से हिंसा-झूठ-चोरी और कुशील आदि सारे पाप हमारे जीवन में प्रवेश पा रहे हैं। लिप्सा ही वह छिद्र है जिसमें से होकर हमारे व्यक्तित्व के प्रसाद में निरन्तर पाप का रिसाव हो रहा है संग णिमित्तं मारइ, भणई अलीक, करेज्ज चोरिक्कं, सेवइ मेहुण मिच्छं, अपरिमाणं कुणइ पावं। - समणसुत्तं
SR No.538060
Book TitleAnekant 2007 Book 60 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2007
Total Pages269
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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