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________________ अनेकान्त 60/4 यह कहना सही है कि अ. भा. दिगम्बर जैन तीर्थक्षेत्र कमेटी के अध्यक्ष के सानिध्य में दिगम्बर जैन राष्ट्रीय शीर्ष संस्थाओं की कोर्डिनेशन कमेटी ने अपनी बैठक में यह प्रस्ताव पारित किया था कि तीर्थों व मंदिरों में प्रचलित जो परम्पराएं चली आ रहीं हैं उनमें बदलाव नहीं होना चाहिए । फिर समझ में नहीं आता कि सप्तरंगी अभिषेक की सूझ किसके मस्तिष्क की उपज है ? ऐसा मालूम होता है कि किसी गरीब जैन के लिए बावनगजा महामस्तकाभिषेक में शामिल होना संभव ही नहीं है क्योंकि बिना कलश राशि दिए न तो वह कलश कर सकता है और न ही उसे कोई आवास की सुविधा प्राप्त होगी । मेरा तो यह मत है कि पंचकल्याणक आदि के भव्य आयोजन समाप्त होने चाहिए और जै समाज को जो धन आयोजनों से प्राप्त होता है उस धन से राष्ट्र हित में जनोपयोगी योजनाएं बनाई जाना चाहिए जिसे जैन समाज की प्रभावना होगी, धर्म की प्रभावना होगी। मानवता की प्रभावना होगी। मानव की सेवा ही सबसे बड़ा धर्म है। वर्तमान में साधुओं के आचरण को लेकर अंगुली उठाई जा रही है और विडम्बना है कि समाज उन्हीं साधुओं द्वारा निर्देशित विधानों का प्रतिपादन करते हैं । हमारी प्रतिष्ठा को भारी आघात लग चुका है। I आज यदि जैन धर्म को बचाना है तो हम सबको इस विषय पर चिन्तन करना चाहिए। हमें एक दूसरे की बात के खण्डन से बचना होगा । अनेकान्त की विचारधारा से हम आपस में मिल जुलकर समाधान निकाल सकते हैं। आंख पर पट्टी बांधकर मुनिभक्त होने से बचना होगा । हमें अपनी मर्यादा में रहना है और साथ ही अपने साधुओं को अपनी मर्यादा में रखना होगा । आज जैनधर्म पर सभी ओर से आक्रमण हो रहे हैं हम इसका मुकाबला संगठित होकर ही कर सकते है। समाज को हमें समझाना होगा कि जैनधर्म स्वतंत्र धर्म है । जैनों को भारतीय संविधान में अल्पसंख्यक का दर्जा प्राप्त है, जिसके आधार पर हम हमारे स्कूल, कॉलेज आदि चलाने में स्वतंत्र हैं, जहां सरकार का कोई दखल नहीं होगा । 64 307-306, तीसरी माला, गणपति प्लाजा एम.आई. रोड़, जयपुर ( समन्वय वाणी वर्ष 28 / 1 से साभार )
SR No.538060
Book TitleAnekant 2007 Book 60 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2007
Total Pages269
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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