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अनेकान्त 60/4
निश्चयात्मकता आनी है । इसीलिए रूपक उपमा और श्लेष उनके प्रिय अलंकार हैं । हीनोपमा पर तो उनका विशेष अधिकार दिखता है । 19वें पद्य में इसे देखा जा सकता है। 16वें पद्य में अनुप्रास अलंकार की छटा दृस्टव्य है
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निर्धूमवर्तिरपवर्गित तैलपूरः, कृत्स्नं जगत्त्रयमिदं प्रकटीकरोषि 1 गम्यो न जातु मरुतां चलिताचलानां, दीपोऽपरस्त्वमसि नाथ जगत् प्रकाशः । ।
अर्थात् हे ज्योतिर्मय ! आप सम्पूर्ण विश्व को ज्ञान रूपी चिर प्रकाश देने वाले हो लोकोत्तर दीपक हैं, जिसे बाती और तेल की जरूरत नहीं और जिससे धुँआ भी नहीं निकलता, बड़े-बड़े ऊँचे पर्वतों को झकझोरकर देनेवाली आँधी भी जिसका बाल बॉका नहीं कर सकती । लौकिक दीपक क्षणिक प्रकाश देता है, और अल्पायु होता है, जबकि प्रभु का केवल ज्ञान रूपी दीपक अक्षय है और अन्तरात्मा को प्रकाशित करता है । कवि ने सम्पूर्ण स्तोत्र में सूर्य, चन्द्र, कमल, दीप, समुद्र, पवन आदि प्राकृतिक उपमानों का प्रयोग तो किया, किन्तु बिलकुल नये दृष्टिकोण से उन्होंने अपने उपमेय की तुलना में सर्वथा हीन सिद्ध किया है। उपमान- उपमेय का साम्य-वैषम्य तथा तिरस्कृतवाच्य ध्वनि भी अभिप्रेत प्रभाव-प्रेषण में सहायक है।
भक्तामर स्तोत्र में उपमा अलंकार का बहुविध प्रयोग देखने को मिलता है । जहाँ उपमेय का उपमान के साथ सादृश्य स्थापित किया जाए वहाँ उपमा अलंकार होता हैं । प्रस्तुत स्तोत्र में इसकी छटा अनेक पद्यों में झलकती है। “सोऽहं तथापि तव भक्तिवशान्मुनीश” नामक पूर्वोक्त पंचम पद्य में जब कवि कहते हैं कि हे प्रभो ! हरिणी दुर्बल होने पर भी अपने शिशु की रक्षार्थ आक्रमणकारी सिंह का भी मुकाबला करती ही है । यहाँ भक्त की उपमा मृगी से की गई है । यद्यपि सिंह उसके सामने होता है, अपनी असमर्थता का ज्ञान भी उसे होता है किन्तु