SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 250
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अनेकान्त 60/4 पुरुष रात्रि भोजन के समान दिन के आदि मुहूर्त्त तथा अंतिम मुहूर्त को छोड़कर भोजन करता है वह इस प्रकार आधे जन्म को उपवास से व्यतीत करता है । 48 आचार्य सोमदेवसूरि ने लिखा है अहिंसाव्रतरक्षार्थं मूलव्रतविशुद्धये । निशायां वर्जयेद्भुक्तिमिहामुत्र च दुःखदाम् । ! उपासकाध्ययन 325 अहिंसा व्रत की रक्षा के लिए और मूलव्रतों को विशुद्ध रखने के लिए इस लोक और परलोक में दुःख देने वाले रात्रि भोजन का त्याग कर देना चाहिए । संहिता के कर्त्ता निकृष्ट श्रावक को भी व्रत के रूप में न सही तो कुलाचार के रूप में ही रात्रि भोजन न करना आवश्यक बतलाकर रात्रि भोजन की बुराइयां बतलाते हैं । वे लिखते है यह सब जानते हैं कि रात्रि में दीपक के निकट पतंग आते ही हैं और वे हवा के वेग से मर जाते है । अतः उनके कलेवर जिस भोजन में पड़ जाते हैं वह भोजन निरामिष कैसे रहा तथा रात्रि में भोजन करने से युक्त अयुक्त का विचार नहीं रहता । अरे जहां मक्खी नहीं दिखाई देती वहां मच्छरों का तो कहना ही क्या ? अतः संयम की वृद्धि के लिए रात्रि में चारों प्रकार के आहार का त्याग करना चाहिए । यदि उतनी सामर्थ्य न हो तो अन्न वगैरह का त्याग करना चाहिए । तत्त्वार्थवार्तिक में लिखा है जिस प्रकार सूर्य के प्रकाश में स्फुट रूप से पदार्थ दिख जाते हैं तथा भूमिदेश, दाता का गमन, अन्न-पानादि गिरे हुए या रखे हुए स्पष्ट दिखाई देते हैं, उस प्रकार चन्द्र आदि के प्रकाश में नहीं दिखते अर्थात् रात्रि में चन्द्रमा और दीपक का प्रकाश होते हुए भी भूमिदेश में स्थित पदार्थ स्पष्ट दृष्टिगोचर नहीं होते इसलिए दिन में ही भोजन करना चाहिए ।
SR No.538060
Book TitleAnekant 2007 Book 60 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2007
Total Pages269
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy