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________________ 22 अनेकान्त 60/1-2 रक्षा करना और कुल के योग्य आचरण की रक्षा करना कुल-पालन कहलाता है। आदि ब्रह्मा भगवान वृषभदेव ने क्षत्रपूर्वक ही इस सृष्टि की रचना की है अर्थात् सबसे पहले क्षत्रिय कहते हैं। तथापि यह वंश अनादिकाल की संतति से बीज वृक्ष के समान अनादिकाल का है तथापि विशेषता इतनी है कि क्षेत्र और काल की अपेक्षा से उसकी सृष्टि होती है तथा प्रजा के लिए न्यायपूर्वक वृत्ति रखना ही उनका योग्य आचरण है। धर्म का उल्लंघन न कर धन कमाना, रक्षा करना, बढ़ाना और योग्य पात्र में दान देना ही उन क्षत्रियों का न्याय कहलाता है। क्षत्रिय पद की प्राप्ति रत्नत्रय के प्रताप से ही होती है। यही कारण है कि क्षत्रिय लोग अयोनिज अर्थात् बिना योनि के उत्पन्न हुए कहलाते हैं। इस प्रकार जैन परम्परा में जन्मना वर्ण का विभाजन न होकर कर्म के आधार पर बताया गया है। रीडर-जैन बौद्ध दर्शन संस्कृत विद्या एवं धर्म विज्ञान संकाय काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी (उ०प्र०) मनुष्यजातिरेकैव जातिनामोदयोद्भवा। वृत्तिभेदाहिताद्भेदाच्चातुर्विध्यमिहाश्नुते।। ब्राह्मणाः व्रतसंस्कारात् क्षत्रियाः शास्त्रधारणात् । वाणिजोऽर्थार्जनान्न्याय्यात् शूद्रा न्यग्वृत्तिसंश्रयात् ।। - आदिपुराण, 38/45-4d यद्यपि जाति नाम कर्म के उदय से उत्पन्न हुई मनुष्य जाति एक ही है, तथापि आजीविका के भेद से होने वाले भेद के कारण वह चार प्रकार की हो गई है। व्रतों के संस्कार से ब्राह्मण, शस्त्र धारण करने से क्षत्रिय, न्यायपूर्वक धन कमाने से वैश्य और नीच वृत्ति का आश्रय लेने से मनुष्य शूद्र कहलाते हैं।
SR No.538060
Book TitleAnekant 2007 Book 60 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2007
Total Pages269
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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