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अनेकान्त 60/4
छट्टे भंते! बए उवट्टिओमि सव्वाओ राईभेयणाओ वेरमणं भंते मै छठे व्रत में उपस्थित हुआ हूँ। इसमें सर्व रात्रि-भोजन की विरति होती है।
रत्नकरण्डश्रावकाचार में स्वामी समन्तभद्र ने छठी प्रतिमा का नाम-रात्रिभुक्तिविरत रखा है और लिखा है
अन्नं पानं खाद्यं लेयं नाश्नाति यो विभावर्याम् ।
स च रात्रिभुक्तिविरतः सत्वेष्वनुकम्पमानमनाः।। अर्थात् जो प्राणियों पर दया करके रात्रि में चारों प्रकार के भोजन का त्याग करता है उसे रात्रिभुक्तिविरत कहते हैं। कार्तिकेयानुप्रेक्षा में भी छठी प्रतिमा का यही स्वरूप दिया है और लिखा है
जो णिसिभुत्तिं वज्जदि सो उववासं करेदि छम्मासं।
संवच्छरस्य मज्झे आरंभचयदि रयणीए।। 82 जो पुरुष रात्रि-भोजन का त्याग करता है, वह एक वर्ष में छह मास उपवास करता है क्योंकि वह रात्रि में आरम्भ का त्याग करता है।
आचार्य अमितगति ने लिखा है जिस रात्रि में राक्षस, भूत और पिशाचों का संचार होता है, जिसमें सूक्ष्म जन्तुओं का समूह दिखाई नहीं देता है, जिसमें स्पष्ट न दिखने से त्यागी हुई भी वस्तु खा ली जाती है, जिसमें घोर अंधकार फैलता है, जिसमें साधु वर्ग का संगम नहीं है, जिसमें देव और गुरु की पूजा नहीं की जाती है, जिसमें खाया गया भोजन संयम का विनाशक है, जिसमें जीते जीवों के भी खाने की संभावना है, जिसमें सभी शुभ कार्यों का अभाव होता है, जिसमें संयमी पुरुष गमनागमन क्रिया भी नहीं करते हैं, ऐसे महादोषों के आलयभूत, दिन के अभाव स्वरूप रात्रि के समय धर्म कार्यों में कुशल पुरुष भोजन नहीं करते हैं। खाने की गृद्धता के दोषवशवर्ती जो दुष्टचित्त पुरुष रात्रि में खाते हैं, वे लोग भूत, राक्षस, पिशाच और शाकिनी डाकिनियों की संगति कैसे छोड़ सकते हैं । अर्थात् रात्रि में राक्षस पिशाचादिक ही खाते हैं अतः रात्रि भोजियों को उन्हीं की संगति का जानना चाहिए। जो मनुष्य यम-नियमादि