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________________ अनेकान्त 60/4 होकर समाधिमरण का साधन करता है, वह साधक है यह परिपूर्ण अवस्था है। रात्रिभोजनविरति विमर्श __ जैनाचार में अहिंसा के परिपालन में रात्रि भोजन त्याग पर भी विचार किया गया है। मुनि और श्रावक दोनों के लिए रात्रि भोजन वर्जित माना है। मूलाचार में "तेसि चेव वदाणां रक्खंढें रादि भोयण विरत्ती" लिखकर यह स्पष्ट किया है कि पांच व्रतों की रक्षा के निमित्त ‘रात्रिभोजन विरमण' का पालन किया जाना चाहिए। सूत्रकृतांग के वैतालीय अध्ययन में लिखा है। अग्गं वणिएहि आहियं, धारंती रायाणया इहं। एवं परमा महव्वया, अक्खाया उ सराइभोयणा।। 3/57 आर्थात् व्यापारियों द्वारा लाए गए श्रेष्ठ (रत्न, आभूषण आदि) को राजा लोग धारण करते हैं, वैसे ही रात्रि-भोजन विरमण सहित पांच महाव्रत परम बताये गये हैं उन्हें संयमी मनुष्य धारण करते हैं। इसी आगम के महावीर स्तुति अध्ययन में लिखा है से वारिया इत्यि सराइभत्तं, उवहाणवं दुक्खखयट्टयाए। लोगं विदित्ता अपरं परं च, सव्वं पभू वारिय सव्ववारी।। दुःखों को क्षीण करने के लिए तपस्वी ज्ञातपुत्र ने स्त्री, भोजन का वर्जन किया। साधारण और विशिष्ट दोनों प्रकार के लोगों को जानकर सर्ववर्जी प्रभु ने सब (स्त्री, रात्रि-भोजन, प्राणातिपात आदि सभी दोषों) का वर्जन किया। इसी गाथा के पाद टिप्पण में लिखा है कि चूर्णिकार और वृत्तिकार ने माना है कि भगवान ने स्वयं पहले मैथुन तथा रात्रि भोजन का परिहार किया और फिर उसका उपदेश दिया। जो व्यक्ति स्वयं धर्म में स्थित नहीं है, वह दूसरों को धर्म में स्थापित नहीं कर सकता।
SR No.538060
Book TitleAnekant 2007 Book 60 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2007
Total Pages269
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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