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________________ अनेकान्त 60/4 33 गुणव्रत के भेद आचार्य समन्तभद्र देशव्रत को पृथक् गुणव्रत न मानकर उसके स्थान पर भोगोपभोगपरिमाणव्रत का समावेश करते हैं। महापुराणकार जिनसेनाचार्य दिग्व्रत, देशव्रत एवं अनर्थदण्डव्रत को गुणव्रत के तीन भेद मानते हुए कुछ आचार्यों द्वारा भोगोपभोगपरिमाणव्रत को भी गुणव्रत माने जाने का उल्लेख करते हैं 'दिग्देशानर्थदण्डेभ्यो विरतिःस्याद्गुणवतम्। भोगोपभोगसंख्यानमप्याहुस्तद्गुणव्रतम् ।।" दिग्व्रत का स्वरूप आचार्य पूज्यपाद ने प्रथम गुणव्रत दिग्व्रत का स्वरूप बताते हुए लिखा है कि 'दिक्पाच्यादिस्तत्र प्रसिद्धरभिज्ञानरवधिं कृत्वा नियमनं दिग्विरतिव्रतम्।' अर्थात् पूर्व आदि दिशाओं में प्रसिद्ध स्थानों की मर्यादा बाँधकर जीवनपर्यन्त का नियम लेना दिग्व्रत कहलाता है। इस व्रत में प्रसिद्ध नदी, ग्राम, नगर, पर्वत, जलाशय आदि तक के गमन का नियम लेकर व्रती श्रावक न उसके बाहर जाता है और न ही उसके बाहर लेन-देन करता है। दिग्व्रत के पालन से गृहस्थ मर्यादा के बाहर किसी भी तरह की हिंसा की प्रवृत्ति से बच जाता है। इसलिए उस क्षेत्र की अपेक्षा वह सूक्ष्म पापों से भी बचकर महाव्रती सा हो जाता है। मर्यादा से बाहर व्यापार करने से प्रभूत लाभ होने पर भी व्यापार नहीं करता है, अतः लोभ की भी न्यूनता हो जाती है। आचार्य पूज्यपाद ने दिग्व्रत के इन दोनों प्रयोजन का उल्लेख करते हुए लिखा है 'ततो बहिस्त्रसस्थावरव्यपरोपणनिवृत्तेर्महाव्रतत्वमवसेयम्। तत्र लाभे सत्यपि परिणामस्य निवृत्तेर्लोभनिराशश्च कृतो भवति ।
SR No.538060
Book TitleAnekant 2007 Book 60 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2007
Total Pages269
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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