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________________ अनेकान्त 60/4 जाता है। पूज्य आचार्य श्री विहार के समय चौराहे पर पहुँचकर भी मार्गों की जानकारी लेते हैं और किसी भी मार्ग पर विहार हो जाता है। इसे अनियत विहार कहा जाता है। अनियत विहार के सम्बन्ध में श्री मुलाचार में वसति शुद्धि एवं विहार शुद्धि के प्रकरणों के अन्तर्गत अच्छा प्रकाश डाला गया है। विहार शुद्धि के अन्तर्गत इस प्रकार कहा गया मुत्ता णिराववेक्खा सच्छंदविहारणो जहा वादो। हिंडंति णिरुव्विग्गा णयरायरमंडियं वसुहं ।। 799 ।। अर्थ : परिग्रह रहित निरपेक्ष स्वच्छन्द विहारी वायु के समान नगर और आकर से मण्डित पृथ्वीतल पर उद्विग्न न होते हुए भ्रमण करते हैं।। आचारवृत्ति- मुक्त-सर्वसंग से रहित, निरपेक्ष- किंचित् भी इच्छा न रखते हुए वायु के समान स्वतन्त्र हुए नगर और खान से मण्डित इस पृथ्वीमण्डल पर विहार करते हैं। _ विहार करते हुए उनकी चर्या कैसी होती है, इस सम्बन्ध में कहा thor वसुधम्मि वि विहरंता पडि ण करेंति कस्सइ कयाई। जीवेसु दयावण्णा माया जह पुत्तभंडेसु ।। 800 ।। अर्थ वसुधा पर विहार करते हुए भी कदाचित किसी को भी पीड़ा नहीं पहुंचाते हैं। जीवों में दया भाव सहित हैं, जैसे कि पुत्र समूह में माता दया रखती है। तणरुक्खहरिदछेदणतय पत्तपवाल कंदमूलाई। फलपुप्फबोयघादं ण करेंति मुणी ण कारेंति।। 803 ।। अर्थ तृण, वृक्ष, हरित वनस्पति का छेदन तथा छाल, पत्ते, कोंपल, कन्द-मूल तथा फल, पुष्प और बीज इनका घात मुनि न स्वयं करते हैं और न कराते हैं।। 803 ।।
SR No.538060
Book TitleAnekant 2007 Book 60 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2007
Total Pages269
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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