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________________ अनेकान्त 60/4 उक्किट्ठसीहचरियं वहु परियम्मो य गुरुयभारो य। जो विहरइ सच्छंदं, पावं गच्छेदि होदि मिच्छत्तं ।।७।। अर्थः जो मुनि सिंह के समान उत्कृष्ट चारित्र धारण करते हैं, अनेक प्रकार के परिकर्म (व्रत उपवास आदि) करते हैं, आचार्य आदि के पद का गुरु भार संभालते हैं परन्तु स्वछंद विहार करते हैं, वे पाप को प्राप्त हैं एवं मिथ्यादृष्टि होते हैं। __ यहाँ एकल विहार से उपर्युक्त दोष तो आते ही है, इनके अतिरिक्त कुछ अन्य विपत्तियां भी आ जाती हैं। कहा भी है : कंटयखण्णुय पडिणिय साण गोणादि सप्प मेच्छेहिं । पावइ आदविवत्ती विसेण व विसूइया चेव।।152।। अर्थः कांटे, ढूंठ, विरोधीजन, कुत्ता, गौ आदि, सर्प, म्लेच्छजन, विष तथा अजीर्ण आदि रोगों से अपने आप में विपत्ति को प्राप्त कर लेता है। ____ आचार वृत्ति निश्चय से एकाकी विहार करता हुआ मुनि कांटे से, ठूठ से, मिथ्यादृष्टि क्रोधी विराधी जनों से, कुत्ते गाय आदि पशुओं . से या सांप आदि हिंसक प्राणी से अथवा म्लेच्छ अर्थात् नीच अज्ञानी जनों के द्वारा स्वयं को कष्ट में डाल देता हैं। अथवा विषैले आहार आदि से या हैजा आदि रोगों से आत्म विपत्ति को प्राप्त कर लेता है। ___ एकल विहरी मुनि के क्या इतने ही पाप स्थान होते हैं या अन्य भी? इस पर आचार्य कहते हैं: आणा अणवत्थाविय मिच्छत्ताराहणादणासो य। संजम विराहणाविय एदे दुणिकाइया ठाणा।।154 ।। अर्थः एकाकी रहने वाले के आज्ञा का उल्लंघन, अनवस्था, मिथ्यात्व का सेवन, आत्मनाश और संयम की विराधना ये पांच पाप-स्थान माने गये हैं।
SR No.538060
Book TitleAnekant 2007 Book 60 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2007
Total Pages269
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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