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________________ श्री मूलाचार की दृष्टि में एकल विहार एवं अनियत विहार रतनलाल वैनाड़ा वर्तमान में एकल विहार तथा अनियत विहार के संबंध में बहुत विसंगतियां दृष्टिगोचर हो रही हैं। पत्र-पत्रिकाओं में भी इन दोनों विषयों पर निरंतर लेख पढ़ने में आ रहे हैं। बहुत से मुनि स्वच्छंद होकर एकल-विहारी बन गये हैं। एकल विहार की परिभाषायें भी मनमानी होने लगी हैं। कोई कम से कम समलिंगी दो साधु होने पर ही ठीक मानते हैं और एक मुनि के साथ यदि कोई क्षल्लक जी हों तो भी उनको एकल विहारी माना जा रहा है। अनियत विहार तो अधिकांश मुनियों ने समाप्त ही कर दिया है। सारे विहार नियत हो गये हैं क्योंकि शानदार स्वागत देखने की इच्छा साधुओं में बलवती हो गई है। इसको उनकी श्रेष्ठता का मापदंड माना जाने लगा है। ऐसी विषम परिस्थितियों में एकल विहार तथा अनियत विहार पर आगम की दृष्टि से विचार करना अत्यंत आवश्यक भी है और उपयोगी भी। साधु संबंधी आचार ग्रंथों में 'मूलाचार' को सर्वसम्मति से सर्वोपरि माना जाता है। अतः श्री मूलाचार के आधार से सर्वप्रथम एकल विहार पर विचार किया जाता मूलाचार की दृष्टि में एकल विहार एकल विहार शब्द का अर्थ है अकेले विहार करना अथवा संघ से अलग अकेले होकर विहार करना। यद्यपि अकेले विहार करना या संघ के साथ विहार करना, यह साधु के 28 मूलगणों में नहीं आता। परन्तु साधु चर्या के निर्दोष पालन के लिये एकल विहार को उपयुक्त नहीं कहा गया है। एकल विहार करने पर निम्नलिखित दोष कहे गये है :
SR No.538060
Book TitleAnekant 2007 Book 60 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2007
Total Pages269
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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