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________________ अनेकान्त 60/4 कथन को उधत कर इस विषय पर अधिक कहना उचित नहीं लगता है। वे लिखते हैं कि "किसी जैन साधु को तन्त्र-मन्त्र की सेना के साथ देखें तो विश्वास करलें कि उन्हें जैनागम का ठोस ज्ञान नहीं है। फलतः भटकन की चर्या में जी रहे हैं। उनके पास दो-दो चार-चार श्रावकों के समूह में जावें और कर्म सिद्धान्त का अध्ययन करने को मनावें। जो मान जावें, उनमें परिवर्तन की प्रतीक्षा करें और जो ने मानें, उन्हें धर्म की दुकान चलाने वाला व्यापारी मानें। ऐसा व्यापारी जिसे अपने लाभ और यश की चिन्ता है, परन्तु समाज और धर्म की नही।'3] कतिपय साधुओं के समीप दो-चार दिन रहकर उनके षड् आवश्यकों के परिपालन को अच्छी तरह जाना जा सकता है। हॉ, शेष सात मूलगुण वाले बाह्य लक्षण आज भी प्रायः सभी साधुओं में दृष्टिगोचर हो जाते हैं। __आज अनियतविहार की प्रवृत्ति छोड़कर कुछ साधु अपने मठ बनाने लगें हैं, आचार्य के अनुशासन का उच्छंखलतापूर्वक निरादर किया जा रहा है, अयोग्यों को दीक्षा दी जा रही है, अन्य संघ पर साधु-साध्वियाँ कटाक्ष कर रहें हैं, आचार्य उपाध्याय बनने की होड़ लग गई है, साधुओं की चारित्रिक गर्दा सुनाई पड़ना अब आम बात सी होती जा रही है, साधु अब पीछी-कमण्डलु के साथ टी.वी, कूलर, फोन, मोटर गाड़ी, कंप्यूटर, चूल्हा-चक्की आदि को रखना आवश्यक सा समझने लगे है अपने नाम पर संघों की स्थापना करना उनका उद्देश्य बन गया है। अपने नाम बैंक एकाउण्ट रखकर स्वयं उसे संचालित कर रहें हैं। राजनेताओं की तरह राजकीय अतिथिपना अब स्टेटस सिंबल बन गया है। प्रथमानुयोग की कथायें छोड़कर विकथायें उपदेश का आधार बन गई हैं। ऐसी स्थिति में साधुओं की मूलाचार, भगवती आराधना एवं अष्टपाहुड के स्वाध्याय की ओर रुचि जाग्रत हो-ऐसा श्रावकों का भी प्रयास होना चाहिए।
SR No.538060
Book TitleAnekant 2007 Book 60 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2007
Total Pages269
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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