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अनेकान्त 60/4
वायु के संचरण के लिए खाली रखे।20 आहार के लिए निकले हुए श्रमण शरीर से वैराग्य, संग से वैराग्य एवं संसार से वैराग्य का विचार करते हुए विचरण करते है तथा काक आदि 32 प्रकार के अन्तरायों का परिहार करते हुए आहार ग्रहण करते हैं। ___ अभिघट दोष के विवेचन के प्रसंग में मूलाचारकार का कथन है कि सरल पंक्ति से तीन या सात घर से आई हुई वस्तु आचिन्न अर्थात् ग्राह्य है तथा उन घरों से अतिरिक्त या सरल पंक्ति से विपरीत
आई हुई वस्तु अनाचिन्न अर्थात् अग्राह्य है। क्योंकि इसमें ईर्यापथशुद्धि नही रहती है।
विहारचर्या
जैन श्रमण अकारण किसी एक स्थान पर निवास नही करते हैं, अतः विहारचर्या श्रमण जीवन का एक महत्त्वपूर्ण अंग है। विहारशुद्धि का कथन करते हुए मूलाचार में कहा गया है कि परिग्रहरति निरपेक्ष स्वच्छन्दविहारी साधु वायु के समान नगर, वन आदि से युक्त पृथिवी पर उद्विग्न न होकर भ्रमण करता रहे। पृथ्वी पर विहार करते हुए वह किसी को पीड़ा नही पंहुचाता है। जीवों के प्रति उसी प्रकार दयाभाव रखता है, जिस प्रकार माता पुत्रों पर दया रखती है।23 शिवार्य ने भगवती आराधना में कहा है कि अनेक देशों में विहार करने से क्षुधाभावना, चर्या भावना आदि का पालन होता है। अनेक देशों में मुनियों के भिन्न-भिन्न आचार का ज्ञान होता है तथा विभिन्न भाषाओं में जीवादि पदार्थों के प्रतिपादन का चातुर्य प्राप्त होता है।24 विहारकाल में मुनि के विशुद्ध परिणामों का कथन करते हुए श्री बट्टकेर आचार्य ने कहा है कि वे उपशान्त, दैन्य से रहित, उपेक्षा स्वभाव वाले, जितेन्द्रिय, निर्लोभी, मूर्खता रहित और कामभोगों में विस्मयरहित होते हैं।25
यलाचारपूर्वक श्रमण को योग्य क्षेत्र में तथा योग्य मार्ग में विहार करना चाहिए। बैलगाड़ी, अन्य वाहन, पालकी/रथ अथवा ऐसे ही अनेक