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अनेकान्त 60/4 भविष्य के दोषों का निराकरण प्रत्याख्यान कहलाता है। दैवसिक आदि नियम क्रियाओं में आगमोक्त प्रमाण के द्वारा आगमोक्त काल में जिनेद्र देव के गुणों के चिन्तनपूर्वक शरीर से ममत्व का त्याग करना कायोत्सर्ग आवश्यक है।
सात शेष मूलगुण
प्रतिक्रमण दिन के समय में दो, तीन या चार माह में उत्तम, मध्यम या जघन्य रूप उपवासपूर्वक केशलोच का विधान किया गया है। यह लोच नामक मूलगुण है। हाथ से लोच करने में दैन्यवृत्ति, याचना, परिग्रह रखना आदि दोषों का होना संभव नही है। वस्त्र, चर्म, वल्कल, पत्र आदि से शरीर को नही ढकना तथा अलंकार एवं परिग्रह से रहित निर्ग्रन्थ वेष में रहना अचेलकत्व नामक मूलगुण है। स्नानादि का त्याग कर देने से जल्ल, मल एवं पसीने से सर्वांग लिप्त हो जाना अस्नान मूल गुण है। इससे मुनि के प्राणीसंयम और इन्द्रिसंयम का पालन होता है। अल्प भी संस्तर से रहित एकान्त में प्रासक भूमि पर दण्डाकार या धनुषाकार शयन करना क्षितिशयन मूलगुण है। अंगुली, नख, दातौन और तिनके के द्वारा अथवा पत्थर, छाल आदि के द्वारा दाँतों के मल का शोधन न करना अदन्तमन या अदन्तधावन मूलगुण है। इससे संयम की रक्षा होती है। दीवाल आदि का सहारा न लेकर निर्जन्तुक भूमि पर पैर रखकर खड़े होकर दोनों हाथ की अंजुली बनाकर भोजन करना स्थिति भोजन मूलगुण है। सूर्योदय एवं सूर्यास्त के काल में से तीन-तीन घड़ी छोडकर मध्यकाल में एक, दो, या तीन मुहूर्त काल में एक बार भोजन करना एकभक्त मूलगुण है।15 लोच से एकभक्त तक के सात मूलगुण साधु के बाह्य चिन्ह हैं।
उक्त मूलगुणों के फल का प्रतिपादन करते हुए मूलाचार में कहा गया है कि इन मूलगुणों को विधिपूर्वक मन-वचन-काय से पालन करके मनुष्य जगत् में पूज्य होकर अक्षय सुखरूप मोक्ष को प्राप्त कर लेता