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________________ अनेकान्त 60/3 अन्न, खाने योग्य वस्तु, स्वाद लेने योग्य वस्तु तथा पीने योग्य वस्तुइस प्रकार चार तरह की भुक्ति का सर्वथा त्याग करना यह बाह्य सल्लेखना है । " 21 द्रव्य तथा भाव रूप दो भेद पंचास्तिकाय की तात्पर्यवृत्ति नामक टीका में आ. जयसेन ने द्रव्य सल्लेखना और भाव सल्लेखना इन दो भेदों का कथन किया है। वे लिखते हैं कि- आत्मसंस्कार के पश्चात् उसके लिए (साधक के लिए) ही क्रोधादि कषायरहित अनन्तज्ञानादि गुण लक्षण परमात्मपदार्थ में स्थित होकर रागादि विकल्पों का कृश करना भाव सल्लेखना है और उस भाव सल्लेखना के लिए काय क्लेश रूप अनुष्ठान करना अर्थात् भोजन आदि का त्याग करके शरीर को कृश करना द्रव्य सल्लेखना है । ' सल्लेखनाऽसंलिखतः कषायान्निष्फला तनोः । कायोऽजडैर्दण्डयितुं कषायानेव दण्डयते । । कपायों को न घटाने वाले के लिए शरीर का घटाना निष्फल है, क्योंकि ज्ञानियों द्वारा कषायों का निग्रह करने के लिए ही शरीर कृश किया जाता है 1 इस कथन से स्पष्ट है कि कषायों को कृश करने पर शरीर निश्चित ही कृश होता है, किन्तु शरीर कृश करने पर कषायें कृश हो भी सकती है और नहीं भी । क्योंकि आहार के द्वारा मदोन्मत्त होने वाले पुरुष को कषायों का जीतना असम्भव ही है । I समाधि के भक्तप्रत्याख्यानादि तीन भेद: धवला टीका के लेखक आ. वीरसेन ने सल्लेखना के प्रायोपगमन, इंगिनीमरण तथा भक्तप्रत्याख्यान इस प्रकार तीन भेद किये है। वे कहते हैं कि तत्रात्मपरोपकारनिरपेक्षं प्रायोपगमन् । आत्मोपकारसव्यपेक्षं
SR No.538060
Book TitleAnekant 2007 Book 60 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2007
Total Pages269
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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