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अनेकान्त 60/3
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भवन, व नृत्य देखने के लिए वर्धमान नामक नृत्यशाला निर्मित की थी। तब नव प्रकार के उद्योग संचालित थे, जिन्हें त्रिलोकसार में नवनिधि कहा गया है। निधि का समाजशास्त्रीय अर्थ उद्योगशाला है। इस प्रकार आदिपुराण से स्पष्ट है कि तब लघु उद्योग के साथ-साथ भारी उद्योग भी थे किन्तु छोटे पैमाने पर चलाये जाने वाले लघु व कुटीर उद्योगों की प्रचुरता थी।
इस प्रकार आजीविका के लिए दुःखी एवं त्रस्त को षट् कर्मों का उपदेश देकर ऋषभदेव ने उनकी जीविका व भरणपोषण सम्बन्धी समस्याओं का समाधान किया। अतः उन्हें विश्व का प्रथम अर्थशास्त्री कहा जाना कदापि असंगत नहीं होगा। वस्तुतः वे अर्थशास्त्र के आदिप्रणेता हैं। उन्होंने एक अर्थशास्त्र की रचना की थी, जिसका उन्होंने अपने पुत्र को अध्ययन कराया था।
आदिपुराण में वर्णित आर्थिक विचार
आदिपुराण के अध्ययन से ज्ञात होता है कि ऋषभदेव ने नगर, ग्राम, पत्तन आदि की रचना, लौकिक शास्त्रो का निर्माण, षट्कर्मों का लोकव्यवहार और दयामूलक धर्म की स्थापना कर इस भूतल पर सर्वप्रथम कर्मसृष्टि का प्रवर्तन किया था। इस प्रकार जो लोग अभी तक अलग-अलग रूप से यत्र-तत्र फैले हुए थे, वे ग्राम, नगरों आदि में सामूहिक रूप से रहने लगे जिससे सहकारिता व पारस्परिक सहयोग वढा। योग्यता के अनुसार आजीविका की व्यवस्था होने से श्रम-विभाजन का प्रारम्भ हुआ और उपभोग, उत्पादन, विनिमय व वितरण सम्बन्धी व्यवस्थायें सुस्थापित हुई। प्रत्येक वर्ण के लिए सुनिश्चित आजीविका से लोगों में विश्रृंखलता नहीं फैली क्योंकि पं कैलाशचन्द शास्त्री के अनुसार- प्रत्येक के लिए दो-दो कर्म निश्चित होगें अर्थात् असि और मषि से आजीविका करने वाले क्षत्रिय, कृषि और वाणिज्य से आजीविका करने वाले वैश्य और विद्या तथा शिल्प से आजीविका करने वाले शूद्र कहे जाते थे। राज्य की व्यवस्था, पूर्ण रोजगार की स्थिति एवं