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________________ अनेकान्त 60/1-2 119 स्तुति, प्रार्थना, वन्दना, उपासना, पूजा, आराधना, सेवा, श्रद्धा आदि सभी भक्ति के ही अनेक रूप हैं। मरणकण्डिका में लिखा हैजिनेन्द्र भक्तिरेकापि, निषेधुं दुर्गतिं क्षमा। आसिद्दि - लब्धितो दातुं, सारां सौख्यपरम्पराम् ।।778 अकेली जिन भक्ति ही दुर्गति का नाश करने में समर्थ द और मोक्ष प्राप्ति होने तक इन्द्र पद, अहमिन्द्र, चक्रवर्ती पद और तीर्थङ्कर पद आदि सारभूत अभ्युदय सुख-परम्परा को देने वाली है। विधिनोप्तस्य शस्यस्य, वृष्टिर्निष्पादका यथा। तथैवाराधना भक्तिश्चतुरङ्गस्य जायते ।।783 जैसे विधि का अर्थात् धान्य उत्पन्न करने के सम्पूर्ण कार्यों का आश्रय कर जमीन में बीज बोने के अनन्तर जल वृष्टि होने से फल की निष्पत्ति होती है वैसे ही अर्हतादि पूज्य पुरुषों की भक्ति करने से ही दर्शन, ज्ञान, तप और चारित्र रूपी फल उत्पन्न होते हैं। पद्मनन्दि - पञ्चविंशतिका में लिखा है प्रपश्यन्ति जिनं भक्त्या पूजयन्ति स्तुवन्ति ये। ते च दृश्याश्च पूज्याश्च स्तुत्याश्च भुवनत्रये ।। ये जिनेन्द्रं न पश्यन्ति पूजयन्ति स्तुवन्ति न। निष्फलं जीवितं तेषां धिक् च गृहाश्रयम्।।6/14,15 जो भव्य प्राणी भक्ति से जिन भगवान का दर्शन, पूजन और स्तुति किया करते हैं वे तीनों लोकों में स्वयं ही दर्शन, पूजन और स्तुति के योग्य बन जाते हैं। ___ जो जीव भक्ति से जिनेन्द्र भगवान का न दर्शन करते हैं, न पूजन करते हैं और न स्तुति ही करते हैं उनका जीवन निष्फल है तथा उनके गृहाश्रम को धिक्कार है।
SR No.538060
Book TitleAnekant 2007 Book 60 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2007
Total Pages269
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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