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________________ अनेकान्त 60/1-2 117 9. आचार्य भक्ति :- तत्त्वों के यथार्थ प्रकाश से तृष्णारूपी अन्धकार को दूर कर देने वाला जिनकी चित्तवृत्ति का प्रचार बाह्य बातों में नहीं होता और परिग्रह रूपी समुद्र के उस पार रहता है, तथा शान्ति रूपी समुद्र के इस पार या उस पार रहता है। अर्थात जिसकी चित्तवृत्ति परिग्रह की भावना से मुक्त हो चुकी है और शान्ति रूपी समुद्र में सदा वास करती है, उन आचार्यों की पूजा विधि में अर्पित की गयी जल की धारा तुम्हारा (हमारा) कल्याण करें। अमरसेण चरिउ की प्रस्तावना पृ. 23 में लिखा है कि ते (पय) धण्ण वि तुवतित्यि जंति। ते पाणि सहल पूया-रयति। ते सोय धण्ण गुणगण-सुगंति। ते णयण धण्ण तव जुइणि यंति।। सा रसणा तुव गुणलोललुलइ। सो साहु इत्थु तुव पडि चलइ।। तं वित्तु वि तुव पयपुज्जलग्गु, तुहं णिवसहि तं हिमवउ समग्गु। तुव णाणकिरणु उज्जोयएण। णट्ठ वि मिच्छय कोसिय सएण।। - प्रथम परिच्छेद पृ. 75-76 नरदेह पाकर अपने अंगों को पुण्य कार्यों में लगावे। जो पैर तीर्थाटन करते हैं, जो हाथ जिनेन्द्रदेव की पूजा करते हैं, जो कान जिनेन्द्र के गुणों को सुनते हैं, जो नेत्र जिनेन्द्र की छवि निहारते हैं, जो रसना जिनेन्द्र का गुण-गान करती है और जिस हृदय में जिनेन्द्रदेव विराजते हैं वे धन्य हैं। उनका होना सार्थक है। धन वही श्रेयस्कर है जो जिनेन्द्र की पाद-पूजा में व्यय होता है। मनष्य के अंगों और धन की सफलता इसी में है। भक्ति का प्रयोजनःमूलाचार में लिखा है अरहंत णमोक्कारो, भावेण य जो करेदि पयदमदी। सो सव्वदुक्खमोक्खं पावइ अचिरेण कालेण।। गाथा 75
SR No.538060
Book TitleAnekant 2007 Book 60 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2007
Total Pages269
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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