SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 114
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अनेकान्त 60/1-2 115 धारण किया तो तीनों लोकों ने अपना काम छोड़कर एक नगर की तरह महान उत्सव किया। छत्र लगाऊं या चमर ढोंरु अथवा जिनदेव के चरणों में स्वर्णकमल अर्पित करूं। इस प्रकार जहां इन्द्र स्वयं ही हर्षित सेवा के लिए तत्पर है वहां मैं क्या कहूं। हे देव! तुम सब दोषों से रहित हो, तुम्हारे वचन सुनयरूप हैं- किसी वस्तु के विषय में इतर दृष्टिकोणों का निराकरण न करके विवक्षित दृष्टिकोण से वस्तु का प्रतिपादन करते हैं तथा तुम्हारे द्वारा बतलायी गयी सब विधि प्राणियों के प्रति दया भाव से पूर्ण है। फिर भी लोक यदि तुमसे सन्तुष्ट नहीं होते तो इसका कारण उनका कर्म है। जैसे उल्लू को सूर्य का तेज पसन्द नहीं है किन्तु उसमें सूर्य का दोष नहीं है बल्कि उल्लू के कर्मों का दोष है। हे देव! तुम्हारे चरणों की पूजा के पाद पीठ संसर्ग- मात्र से फूल तीनों लोकों के मस्तक का भूषण बन जाता है अर्थात् उस फूल को सव अपने सिर से लगाते हैं जबकि दूसरों के सिर पर भी रखा हुआ फूल अस्पृश्य माना जाता है। अतः अन्य सूर्य, रुद्रादि देवताओं से तुम्हारी क्या समानता की जावे। हे देव! पहले मिथ्यात्वरूपी गाढ़ अन्धकार से आच्छादित होने के कारण ज्ञानशून्य होकर यह जगत संसार रूपी गढ़े में पड़ा हुआ था। उसका नेत्र-कमल और हृदय-कमल को विकसित करने वाली स्याद्वादरूपी किरणों के द्वारा तुमने ही उद्धार किया है। हे देव! जिसके मन रूपी स्वच्छ सरोवर में तुम्हारे दोनों चरण-कमल विराजमान है उसके पास लक्ष्मी स्वयं आती है तथा स्वर्ग और मोक्ष को यह सरस्वती नियम से उसे वरण करती है। ____5. सिद्ध भक्ति :- जिन्होंने अपनी छद्मस्थ अवस्था में मति, श्रुत और अवधिज्ञान के द्वारा सब ज्ञेय तत्वों को विस्तार से जाना, फिर ध्यान रूपी वायु के द्वारा समस्त पाप रूपी धूलि को उड़ाकर केवल ज्ञान प्राप्त किया, फिर इन्द्रादिक के द्वारा किये गये बड़े उत्सव के साथ सर्वत्र विहार करके जीवों का उपकार कियास, तीनों लोकों के ऊपर विराजमान ह वे सिद्ध परमेष्ठी हम सबकी सिद्धि में सहायक हों। मन को दान,
SR No.538060
Book TitleAnekant 2007 Book 60 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2007
Total Pages269
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy