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________________ 111 अनेकान्त 60/1-2 समायुक्त होकर अपने आराध्य के चरणों में सम्प्रेषित होते है तो संस्तुति या संस्तवन का रूप ले लेते हैं। इसका सार यह है कि भक्ति का उद्गम सम्यक्त्व (श्रद्धा) के मूलस्रोत से होता है जो अन्ततः मोक्षात्मक परम लक्ष्य तक पहुंचाता है। महाकवि वाग्दिराज ने अपने ‘एकीभावस्तोत्र' में लिखा है शुद्ध ज्ञाने शुचिनि चरिते सत्यपि त्वय्यनीचा। भक्तिनो चेदनवधिसुखावञ्चिका कुविकेय।। शक्योद्घाटं भवति हि कथं मुक्तिकामस्य पुंसो। मुक्तिद्वारं परिदृष्ढमहा मोह मुद्रांकपाटम्।। हे प्रभो! शुद्ध ज्ञान और पवित्र चारित्र के होने पर भी यदि असीम सुख देने वाली कुंजी स्वरूप तुम्हारी उत्कृष्ट भक्ति नहीं है तो महामोहरूपी ताले से बन्द मोक्षद्वार को मोक्षार्थी कैसे खोल सकता है। आचार्य कुन्दकुन्द ने लिखा हैअरहते सुहभत्ती सम्मत्तं दंसणेण विसुद्धं ।। लिंग पाहुड़ गाथा 40 भक्ति ही मिथ्यात्व रूपी ताले को खोलने के लिए कुंजी (चाबी) की तरह है। जब तक यह भक्ति रूप सम्यग्दर्शन प्राप्त नहीं होता तब तक ज्ञान और चारित्र के रहते हुए भी मोक्ष प्राप्त नहीं किया जा सकता है अर्थात् भक्ति, ज्ञान और चारित्र से भी श्रेष्ठ है। भक्ति के भेद : 1. दर्शन भक्ति :- जिनेन्द्र देव ने तत्त्वों में मन की अत्यन्त रुचि को सम्यग्दर्शन कहा है। इस सम्यग्दर्शन के दो, तीन और दस भेद बतलाये हैं। प्रशम, संवेग, अनुकम्पा और आस्तिक्य गुण के द्वारा सम्यग्दर्शन की पहचान होती है, उसके निःशंकित, निःकांक्षित आदि गुण
SR No.538060
Book TitleAnekant 2007 Book 60 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2007
Total Pages269
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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