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अनेकान्त-58/1-2
के अनुसार उपवास करते हुये पंच परमेष्ठी का स्मरण कर शरीर का त्याग किया जाता है। इस पूरी प्रक्रिया में सल्लेखना कराने वाले आचार्य (निर्यपकाचार्य) की महत्वपूर्ण भूमिका रहती है। क्योंकि रोग की वेदना, तीव्र राग का उदय, विषयों की लिप्तता आदि के समय मन विचलित होने लगता है तब निर्यापकाचार्य अपने संबोधन से क्षपक के विचारों में स्थिरता प्रदान करते हैं। अतः श्रेष्ठ निर्यापकाचार्य होना आवश्यक है। निर्यापकाचार्य के आठ गुण कहे गये हैं।
आचारी सूरिराधारी व्यवहारी प्रकारकः ।
आयापाय दृगुत्पीड़ी सुख कार्य परिस्रवः।। अर्थात् - आचार वान, आधार वान, व्यवहार वान प्रकारक (कत्ता) आयापाय दृग, उत्पीड़क और परिनावी इन आठ गुणों से सहित निर्यापकाचार्य होना चाहिये। क्योंकि बिना आचार्य के उपदेश के मन की शुद्धि, स्थिरता नहीं होती
___ काल की अपेक्षा सल्लेखना उत्तम, मध्यम और जघन्य के भेद से तीन प्रकार की होती है। उत्कृष्ट बारह वर्ष, मध्यम काल के असंख्यात भेद है। जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है। उत्कृष्ट बारह वर्ष की सल्लेखना में आहारादि के त्याग का क्रम निम्नानुसार है
जोगेहिं विचित्तेहिं दुखवेइ संवच्छ राणी चत्तारि। वियडीणि य जूहित्ता चत्तारि पुणो वि सोसेई।। आयविलणि व्वियडी हिंदोण्णि आयं विलेण एक्कं च।
अद्धंणा दि विगढ़े हिं तदो अद्धं विगढे हिं।। " अर्थात् - विचित्र प्रकार के काय क्लेशादि योग से चार वर्ष पूर्ण करे पश्चात चार वर्ष रस रहित भोजन से शरीर कश करे। आचाम्ल (अल्पाहार) तथा नीरस भोजन से दो वर्ष पूर्ण करे पश्चात अल्पाहार से एक वर्ष पूर्ण करे। इसके बाद छह महीने अनुत्कृष्ट तप करे और अंतिम छह महिने उत्कृष्ट तप कर बारह वर्ष पूर्ण करे। समाधि में आचार्य को क्षपक के भावों की स्थिरता का विशेष ध्यान रखना पड़ता है। यदि भावों में कोई विकार आ जावे तो समाधि विकृत हो