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पाठकीय विचार
___ -डॉ. अनिल कुमार जैन जनवरी-जून 2005 का ‘अनेकान्त' का अंक कई महत्वपूर्ण एवं रोचक विषयों से भरपूर है। आचार्य कुन्दकुन्द के सम्बन्ध में आदरणीय पंडित श्री पद्मचन्द्र शास्त्री जी का लेख व आपका संपादकीय महत्वपूर्ण समाधान प्रस्तुत करता है। डॉ. नन्दलाल जी का एक वाक्य यह कि 'वस्तुतः अनेकांतवादी जैन अपने-अपने पक्ष के एकांतवादी हो गये हैं। अच्छा लगा। ___ इसी अंक में डॉ. श्रेयांस कुमार जैन का लेख 'आगम की कसौटी पर प्रेमी जी' प्रकाशित हुआ है। इसमें उन्होंने प्रेमी जी के विधवा-विवाह, विजातीय विवाह, तत्त्वार्थसूत्र के कर्ता सम्बन्धी विचारों को आगम की कसौटी पर कस कर अन्त में एक निष्कर्ष यह भी दिया है कि 'प्रेमी जी एक साहित्यकार और इतिहास विज्ञ सुयोग्य मनीषी अवश्य हैं किन्तु आगम की परिधि में रहकर लेखन करने वाले न होने से उन्हें आगम का श्रद्धालु तो नहीं कहा जा सकता है। इस प्रकार डाक्टर साहब ने प्रेमी जी को मिथ्यादृष्टि करार दे दिया है। इन सभी मुद्दों पर विचार करना आवश्यक है।
पिछले कुछ समय से मैं यह महसूस करने लगा हूँ कि हमारे कुछ 'आगम के ज्ञाता' विद्वानों ने लोगों को सर्टिफिकेट देना शुरू कर दिया है कि कौन सम्यक्दृष्टि है और कौन मिथ्यादृष्टि। यदि तर्क पर उनके विचारों की कहीं काट हो रही हो तो तुरन्त कह दो इन्हें आगम का ज्ञान नहीं हैं, इसलिए ऐसा कह रहे हैं, मिथ्यादृष्टि हैं। जैसा कि हम समझते हैं कि कौन सम्यक्दृष्टि है और कौन मिथ्यादृष्टि, यह शायद छद्मस्थों की शक्ति के बाहर है; वस्तुतः इसे तो वीतराग प्रभु ही जान सकते हैं।