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________________ 126 अनेकान्त 58/3-4 रूप में यह चन्द्रगिरि पहाड़ी इतनी प्रसिद्ध हुई कि यहाँ के सबसे प्राचीन 600 ई. के शिलालेख में इसे कटवप्र या कल्पवप्पु (समाधिशिखर) तीर्थगिरि एवं ऋषिगिरि कहा गया है। सल्लेखना पूर्वक श्रुतकेवली भद्रबाहु ने वी.नि. 155 में चन्द्रगिरि पर समाधिमरण को प्राप्त कर अपने को कृत्कृत्य किया। सल्लेखना उच्चतम आध्यात्मिक दशा का सूचक है। मृत्यु का आकस्मिक वरण नहीं है और न वह मौत का आह्वान है। वरन जीवन के अन्तिम क्षणों में सावधानी पूर्वक चलना है। ___ इसे जीवन की अन्तिम साधना कहा जा सकता है। वास्तव में जीवन रूपी मन्दिर का भव्य कलश है। इसी चिन्तन पूर्वक श्रुतकेवली भद्रबाहु ने समाधिमरण धारण कर कर्मभार को हल्का किया। अपने साधक जीवन के रहस्य को पहचाना और साधना को सफल कर स्वर्गस्थ हुए। रीडर-संस्कृत विभाग, दि. जैन कॉलेज, बड़ौत सन्दर्भः 1. सुयकेवलणाणी पच जणा विण्हु नन्दिमित्तो य। अपराजिय गोवद्धण तह भद्दबाहु य सजादा ।। नन्दीसंघ वलात्कारगण स.ग प्रा पा. 2. जो हि सुदेणाभिगच्छदि अप्पाणमिणं तु केवलं सुद्ध। तं सुदकेवलिमिसिणो भणति लोगप्पदीवयरा।। जो सुदणाणं सव्वं जाणदि सुदकेवलिं तमाहु जिणा। णाणं अप्पा सव्वं जम्हा सुदकेवली तम्हा।। 9 10।। समयसार 3. यो भद्रबाहुः मुनिपुगव पट्टपद्म। सूर्यः स वो दिशतु निर्मलसघवृद्धिभ ।। जैनसिद्धान्तभास्कर भाग । किरण 4 पृ. 51 4. वारस अगवियाणं चउदस पुव्वंगविउल वित्थरणं। सुयणाणि भद्दबाहू गमयगुरु भयवओ जयओ।। 62 ।। सद्दवियारो हुओ भासासुत्तेसु जं जिणे कहिय। सो तह कहियं णायं सीसेणं य भद्दबाहुस्स ।। 61 ।। बोधपाहुड़
SR No.538058
Book TitleAnekant 2005 Book 58 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2005
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size9 MB
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