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अनेकान्त 58/3-4
____ मैसूर राज्यवंश परम्परा से भगवान् बाहुबली के मस्तकाभिषेक में श्रद्धा से रुचि लेता आया है। सन् 1826 में आयोजित मस्तकाभिषेक के अवसर पर संयोगवश श्रवणवेलगोल में महान् सेनापति चामुण्डराय के वंशज मैसूर नरेश कृष्णराज बडेयर के प्रधान अंगरक्षक की मृत्यु हो गई थी। उनके पुत्र पुट्ट दैवराजे अरसु ने अपने पिता की पावन स्मृति में गोम्मटस्वामी की वार्षिक पाद पूजा के लिए उक्त तिथि को 100 ‘वरह' का दान दिया। गोम्मटेश्वर तीर्थक्षेत्र की पूजा-अर्चा आदि के लिए इसी प्रकार से अनेक भक्तिपरक अभिलेख श्रवणबेलगोल से प्राप्त होते है।
श्रवणबेलगोल स्थित भगवान् गोम्मटस्वामी की विशाल एवं उत्तुंग प्रतिमा का रचनाशिल्प एवं कला कौशल दर्शनार्थियों को मन्त्रमुग्ध कर देता है। ऐसी स्थिति में कला प्रेमियो को अनायास जिज्ञासा होती है कि
आज से सहस्राधिक वर्ष पूर्व भगवान् बाहुबली की इतनी विराट् मूर्ति का निर्माण कैसे किया गया होगा, किस प्रकार इस विशालकाय मूर्ति को पर्वत पर लाया गया होगा और कैसे इसे पर्वत पर स्थापित किया गया होगा? इन्द्रगिरि पर्वत पर स्थिति भगवान् गोम्मटेश्वर की प्रतिमा के निर्माण, कला-कौशल, रचना-शिल्प आदि के सम्बन्ध में महान् पुरातत्ववेत्ता श्री के. आर. श्रीनिवासन द्वारा प्रस्तुत शोधपूर्ण जानकारियां अत्यन्त उपादेय हैं। विद्वान् लेखक ने भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा प्रकाशित 'जैन कला एवं स्थापत्य' खंड 2 के अन्तर्गत 'दक्षिण भारत' (600 से 1000 ई0) की मूर्ति कला का विवेचन करते हुए अपनी मान्यताओ को इस प्रकार प्रस्तुत किया है
"श्रवणबेलगोल की इन्द्रगिरि पहाड़ी पर गोम्मटेश्वर की विशाल प्रतिमा मूर्तिकला में गंग राजाओं की और, वास्तव में, भारत के अन्य किसी भी राजवंश की महत्तम उपलब्धि है। पहाड़ी की 140 मीटर ऊंची चोटी पर स्थित यह मूर्ति चारों ओर से पर्याप्त दूरी से ही दिखाई देती है। इसे पहाड़ी की चोटी के ऊपर प्रक्षिप्त ग्रेनाइट की चट्टान को काटकर बनाया गया है। पत्थर की सुन्दर रवेदार उकेर ने निश्चय ही मूर्तिकार को व्यापक रूप से