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अनेकान्त 58/3-4
का प्रतिपादन करते हुए कहा है कि उसे सर्वार्थसिद्धि के देवों ने और सर्वावधि - परमावधिज्ञान के धारी योगियों ने दूर से देखा ।
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इन्द्रगिरि पर स्थित भगवान् गोम्मटेश की तपोरत प्रतिमा के चरणों में अपनी भक्ति का अर्घ्य समर्पित करते हुए आचार्य श्री नेमिचन्द्र ने कहा है
उपाहिमुत्तं धणधाम - वज्जियं, सुसम्मत्तं मय- मोहहारयं । वस्सेय पज्जंतमुववास-जुत्तं, तं गोम्मटेसं पणमामि णिच्चं । ।
( गोम्मटेस - धुदि पद सं. 8 )
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अर्थात् समस्त उपाधियों से मुक्त होकर, धनधाम आदि सम्पूर्ण परिग्रह को छोड़कर, मद-मोह आदि विकारो को निरस्त करके, सुखद समभाव से परिपूरित जिन्होंने एक वर्ष का उपवास किया, उन भगवान् गोम्मटेश्वर का मै नित्य नमन करूँ ।
दक्षिण भारत में कर्नाटक राज्य के उदार होयसल वंशी नरेशों के राज्यकाल में जैनधर्म का विशेष संरक्षण हुआ । होयसल नरेश राजा विनयादित्य का समय भारतीय इतिहास में 'जैन मन्दिरों के निर्माण का स्वर्णयुग' माना जाता है | श्रवणबेलगोल से प्राप्त एक अभिलेख (लेख सं. 53 (143) में कहा गया है कि उन्होंने कितने ही तालाव व जैन मन्दिर निर्माण कराये थे । यहाँ तक कि ईंटों के लिए जो भूमि खोदी गई वहाँ तालाव बन गये, जिन पर्वतों से पत्थर निकाला गया वे पृथ्वी के समतल हो गये, जिन रास्तों से चूने की गाड़ियाँ निकली वे रास्ते गहरी घाटियाँ हो गये। इसी वंश के प्रतापी राजा विष्णुवर्धन (ई. 1109 से 1141 ) के राज्यकाल में होयसलेश्वर एव शातलेश्वर के विश्व प्रसिद्ध शिवालयों का निर्माण हुआ । उपरोक्त मन्दिरों के लिए विशाल नंदी - मण्डप बनाए गए । सैकड़ों शिल्पियों के संयुक्त परिश्रम से कई मास में नन्दियों की मूर्ति