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________________ अनेकान्त 58/3-4 81 जगति जयिनमेनं योगिनं योगिवर्यैरधिगतमहिमानं मानितं माननीयैः। स्मरति हृदि नितान्तं यः स शान्तान्तरात्मा भजति विजयलक्ष्मीमाशु जैनीमजय्याम् ।। आचार्य जिनसेन अपने युग के परमप्रभावक धर्माचार्य थे। तत्कालीन दक्षिण भारत के राज्यवशों एव जनसाधारण में उनका विशेष प्रभाव था। शक्तिशाली राष्ट्रकूट नरेश अमोघवर्ष (प्रथम) ने सम्भवतया उन्हीं के प्रभाव से जीवन के अन्तिम भाग में दिगम्बरी दीक्षा ली थी। ऐसे महान् आचार्य एवं कवि के मानस पटल पर अंकित भगवान् बाहुबली की विशाल प्रतिमा को मूर्त रूप देने का विचार जैन धर्मावलम्बियों में निश्चित रूप से आया होगा। धर्मपरायण सम्राट अमोघवर्ष (प्रथम) का अपने अधीनस्थ राजा बकेय से विशेष स्नेह था। उदार सम्राट ने राजा वकय द्वारा निर्मित जिनमन्दिर के लिए तलेमुर गाव का दान भी किया था। जैन धर्म परायण राजा बंकेय ने अपने पौरुप से वंकापुर नाम की राजधानी बनाई जो कालान्तर में जैन धर्म का एक प्रमुख सास्कृतिक केन्द्र बन गयी। सम्राट अमोघवर्ष (प्रथम) के पुत्र अकाल वर्ष और राजा बंकेय के पुत्र लोकादित्य मे प्रगाढ़ मैत्री थी। सम्राट अकालवर्प के राज्यकाल में राजा लोकादित्य की साक्षी में उत्तरपुराण के पूर्ण हो जाने पर महापुराण की विशेष पूजा का आयोजन हुआ। उत्तरपुराण की पीटिका के आशीर्वचन में कहा गया हैमहापुराण के चिन्तवन से शान्ति, समृद्धि, विजय, कल्याण आदि की प्राप्ति होती है। अत. भक्तजनो को इस ग्रन्थराज की व्याख्या, श्रवण, चिन्तवन, पूजा, लेखन कार्य आदि की व्यवस्था में रुचि लेनी चाहिए। परवर्ती राष्ट्रकूट नरेशों एवं गंगवशीय शासकों में विशेष स्नेह सम्बन्ध रह है। राष्ट्रकूट नरेश इन्द्र चतुर्थ का गगवंशीय राजा मारसिह ने अभिषेक किया था। राजा इन्द्र चतुर्थ ने जीवन के अन्तिम भाग में सल्लेखना द्वाग श्रवणबेलगोल में देहोत्सर्ग किया। गंगवंशीय राजा मासिह ने बकापुर मे
SR No.538058
Book TitleAnekant 2005 Book 58 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2005
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size9 MB
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