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________________ अनेकान्त 58/3-4 62 अथोवाच विहस्यैवं भरतं बाहुविक्रमी। किं वराकेन लोकेन निहतेनामुनावयोः।। यदि निःस्पन्दया दृष्ट्या भवताहं पराजितः। ततो निर्जित एवास्मि दृष्टियुद्धे प्रवर्त्यताम् ।। (पद्मपुराण, संधि 4/70-71) जैन संस्कृति के पोषक राजा बाहुबली द्वारा युद्धक्षेत्र में निरपराध मनुष्यों के अनावश्यक संहार से बचने के लिए अहिंसात्मक युद्ध का प्रस्ताव तर्कसंगत लगता है। चक्रवर्ती राज्य की स्थापना में संलग्न आग्रहवादी सम्राट् भरत के लिए दिग्विजय अत्यावश्यक थी। इसीलिए उसे अपने प्राणप्रिय अनुज पर आक्रमण करना पड़ा। इसके विपरीत राजा बाहबली का उद्देश्य अपने राज्य की प्रभुसत्ता को बनाए रखना था। राजा बाहुबली ने अपने दृष्टिकोण को प्रस्तुत करते हुए कहा था पवसन्तें परम-जिणेसरेण। जं किं पि विहज्जेवि दिण्णु तेण ।। तं अम्हहुँ सासणु सुह-णिहाणु। किउ विप्पिउ णउ केण वि समाणु।। सो पिहिमिहैं हउँ पोयणहों सामि। णउ देमि ण लेमि ण पासु जामि ।। दिखूण तेण किर कवणु कज्जु । (पउमचरिउ, सन्धि 4/4) अर्थात् दीक्षा लेते समय पिताजी ने बॅटवारे में जितनी धरती मुझे दी थी, उस पर मेरा सुखद शासन है, किसी के साथ मैंने कुछ बुरा भी नहीं किया। वह भरत तो सारी धरती का स्वामी है, मैं तो केवल पोदनपुर का अधिपति हूं, न तो मैं कुछ देता हूं और न लेता हूं और न उसके पास जाता हूं। उससे भेंट करने में मेरा कौन-सा काम बनेगा? अतः आत्मविश्वास से मंडित पराक्रमी बाहुबली द्वारा पोदनपुर की
SR No.538058
Book TitleAnekant 2005 Book 58 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2005
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size9 MB
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