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________________ अनेकान्त 58/3-4 हे दूत! पिताजी के द्वारा दी हुई. यह हमारे ही कुल की पृथ्वी भरत के लिए भाई की स्त्री के समान है। अब वह उसे ही लेना चाहता है! तेरे ऐसे स्वामी को क्या लज्जा नहीं आती? जो मनुष्य स्वतन्त्र है और इच्छानुसार शत्रुओं को जीतने की इच्छा रखते हैं वे अपने कुल की स्त्रियों और भुजाओं से कमाई हुई पृथ्वी को छोड़कर बाकी सब कुछ दे सकते हैं। इसलिए बार-बार कहना व्यर्थ है, एक छत्र से चिह्नित इस पृथ्वी को वह भरत ही चिरकाल तक उपभोग करे अथवा भुजाओं में पराक्रम रखने वाला मैं ही उपभोग करूँ। मुझे पराजित किये बिना वह इस पृथ्वी का उपभोग नहीं कर सकता। महाकवि स्वयंभू के 'पउमचरिउ' का मन्त्री राजा बाहुबली को उत्तेजित करने के लिए कहता है कि जिस प्रकार अन्य भाई सम्राट भरत की आज्ञा मानकर रहते हैं, उसी प्रकार आप भी रहिए। स्वाभिमानी बाहुबली उत्तर देते हैं कि यह धरती तो पिताजी की देन है। मैं किसी अन्य की सेवा नहीं कर सकता। बाहुबली द्वारा अपने पक्ष का औचित्य सिद्ध करने और सम्राट भरत की आधीनता न स्वीकार करने पर भरत के मन्त्री ने क्रोध के वशीभूत होकर बाहुबली के स्वाभिमान को ललकारते हुए कहा'जइ वि तुज्झु इमु मण्डलु वहु-चिन्तिय-फलु आसि समप्पिउ वप्पें । गामु सीमु खलु खेत्तु वि सरिसव-मेत्तु वि तो वि णाहिँ विणु कप्पें ।। (पउमचरिउ) ___ अर्थात् यदि तुम समझते हो कि यह धरती-मण्डल तुम्हें पिताजी ने बहुत सोच-विचार कर दिया है, तो याद रखो गांव, सीमा, खलिहान और खेत, एक सरसों भर भी, बिना कर दिये तुम्हारे नहीं हो सकते। महाभारत में भगवान् कृष्ण से कौरवराज दुर्योधन ने इसी प्रकार की दर्पपूर्ण भाषा का प्रयोग किया था। मन्त्री के प्रत्युत्तर में महापराक्रमी बाहुबली ने वीरोचित उत्तर देते हुए कहा-वह एक चक्र के बल पर गर्व कर रहा है। वह नहीं जानता कि चक्र से उसका मनोरथ सिद्ध नहीं होगा। मैं उसे यद्धक्षेत्र में ऐसा कर दूंगा जिससे उसका मान सदा के लिए चूर हो जाए।
SR No.538058
Book TitleAnekant 2005 Book 58 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2005
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size9 MB
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