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अनेकान्त 58/3-4
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श्रवणबेल्गोला के अभिलेखों में दान परम्परा एवं श्रवणबेल्गोला के अभिलेखो में वर्णित बैंकिग प्रणाली लेख कार्यकारिणी सदस्य (वीर सेन मदिर) साहित्य मनीषी श्री सुमतप्रसाद जैन ने उपलब्ध कराये हैं।
-सम्पादक
श्रवणबेल्गोला के अभिलेखों में दान परम्परा
-डॉ. जगबीर कौशिक शुद्ध धर्म का अवकाश न होने से धर्म में दान की प्रधानता है। दान देना मंगल माना जाता था। याचक को दान देकर दाता विभिन्न प्रकार के सुखों की अनुभूति करता था। अभिलेखों के वर्ण्य-विषय को देखते हुए यह माना जा सकता है कि दान देने के कई प्रयोजन होते थे। कभी मनि राजा या साधारण व्यक्ति को समाज के कल्याण हेतु दान देने के लिए कहते थे तथा कभी लोग अपने पूर्वजों की स्मृति में वसदि या निषद्या का निर्माण करवाते थे। किन्तु प्रसन्न मन से दान देना विशेष महत्त्वपूर्ण माना जाता है।
साधारण रूप में स्वयं अपने और दूसरे के उपकार के लिए अपनी वस्तु का त्याग करना दान है। राजवार्तिक में भी इसी बात को कहा गया है।' किन्तु धवला के अनुसार रत्नत्रय से युक्त जीवों के लिए अपने वित्त का त्याग करने का रत्नत्रय के योग्य साधनों को प्रदत्त करने की इच्छा का नाम दान है। आचार्यों ने अपनी कृतियों में दान के विभिन्न भेदों की चर्चा की है। सर्वार्थसिद्धि में आहारदान, अभयदान तथा ज्ञानदान नामक तीन दानों की चर्चा की है। जबकि सागारधर्मामृत' के अनुसार सात्त्विक, राजस, तामस आदि तीन प्रकार के दान होते हैं। किन्तु मुख्य रूप से दान को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है-अलौकिक व लौकिक। अलौकिक दान साधुओं को दिया जाता है, जो चार प्रकार का है-आहार, औषध, ज्ञान व अभय तथा लौकिक दान साधारण व्यक्तियों को दिया जाता है। जैसे-समदत्ति, करुणदत्ति, औषधालय, स्कूल, प्याऊ आदि खुलवाना।