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अनेकान्त 58/3-4
से राज्य शिल्पी अरिष्टनेमी द्वारा मूर्ति का निर्माण कराया। यही कारण है कि उनके द्वारा जिन धर्म की प्रभावना के कारण सर्वसंघ ने चामुण्डराय को 'सम्यक्त्व - रत्नाकर', 'सत्य- युद्धिष्ठर', 'देवराज' तथा 'शौचाभरण' जैसी उपाधियों से अलंकृत किया था । उस समय के सर्वोत्कृष्ट शासकों ने भी उन्हें उनकी विजयोपलब्धियों पर समय-समय पर 'समर धुरंधर', 'वीर - मार्तण्ड', 'रण-रग-सिंह', 'बैरिकुल- कालदण्ड', 'भुजविक्रम', 'समरकेशरी', 'प्रतिपक्षराक्षस', 'सुभट चूड़ामणि' 'समर - परसुराम' तथा 'राय' इत्यादि उपाधियों से विभूषित किया था।
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मूर्ति प्रतिष्ठा :
चामुण्डराय ने मूर्ति का निर्माण और स्थापना कराई, इसमें तो कोई संदेह नहीं, किंतु स्थापना कब, किस तिथि को हुई इस बारे मे विद्वानों में गंभीर मतभेद रहे हैं । यह विषय स्वतन्त्र विवेचन की अपेक्षा रखता है। यहाॅ इतना ही जानना पर्याप्त है कि लगभग सभी विद्वानों ने काफी विचार विमर्श के बाद तथा 'बाहुबली चरित' में दिए हुए नक्षत्रीय संकेतो को भी ध्यान में रखते हुए श्रवणबेलगोल में मूर्ति की प्रतिष्ठा के लिए 13 मार्च, 981 A.D. को सर्वाधिक अनुकूल माना है। इसी के आधार पर सन् 1981 में सहस्राब्दि महामस्तकाभिषेक सम्पन्न हुआ था। तब से यही समय प्रामाणिक माना जा रहा है ।
बेलगोल से श्रवणबेलगोल :
श्रवणबेलगोल का 'श्रवण' शब्द स्पष्ट रूप से 'श्रमण' भगवान् बाहुबली (जो स्वयं महाश्रमण थे) के साथ सम्बन्धित है । एक महत्त्वपूर्ण शिलालेख (न. 31 ) में यह उल्लेख है कि जैन धर्म की प्रभावना उस नगर में उसी समय से हो गई थी जब आचार्य भद्रबाहु अपने शिष्य सम्राट चन्द्रगुप्त के साथ वहाँ पहुँचे थे। जैन धर्म का प्रभाव कुछ समय के लिए अवश्य कम हुआ किन्तु उसे मुनि शान्तिसेन ने पुनर्जीवित किया । (650