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अनेकान्त-58/1-2
सर्वज्ञवाट ने तो हमारी प्रगति ही अवरुद्ध कर दी! मै सोचता हूँ कि क्या कभी किसी तीर्थकर तथागत या अवतार ने कहा था कि मेरे बाद ऐसा कोई नहीं होगा? और क्या वे स्वयं अपने आपको सर्वज्ञाता कह सकते थे? पर यदि हम अपनी बुद्धि और विचारशक्ति को ग्रंथों में आबद्ध कर लें तो विकास कैसे संभव है।
यह सही है कि बहुश्रुत लेखक ने धर्मनिष्ठा तथा सत्यनिष्ठा के आधार पर अपने विचार प्रकट किये हैं, किन्तु वे यह भी जानते हैं कि आज विश्व की अनेक मुखी परिस्थितियों ने इतनी करवट ले ली है कि भारत में सोया हुआ व्यक्ति अमेरिका में करवट बदलकर जागता है। सारा विश्व समृद्धि और शक्ति-संचय की ओर दौड़ रहा है। सुदूर ग्रहों पर भी सत्तासीन होने के प्रयास चल रहे हैं। धर्म, सिद्धान्त और परम्पराएँ विज्ञान की खोजों और उपलब्धियों के आगे महत्त्वहीन या अनुपयोगी साबित हो रही हैं। अध्यात्मक तथा तप-त्याग की, कायक्लेश की साधना में रत साधुवर्ग भी मन हो मन आकांक्षी है कि स्वर्ग का सुख भोगने को मिले! विज्ञान की खोजों ने हमारे सारे सिद्धान्तों पर पुनर्विचार करने की प्रेरणा दी है। स्वर्ग-मोक्ष, कर्म-सिद्धान्त, आयुर्विज्ञान सब बीते युग की बातें रह गयी हैं।
यह माना कि अपरिग्रह या आंकिचन्य की अवधारणा व्यक्ति के आत्मकल्याण की दृष्टि से, सन्तोष धारण करने की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है, पर क्या इससे राष्ट्रीय समृद्धि और शक्ति में सहायता मिल सकती है? 'छोड़ सकल जग दंद-फंद निज आतम ध्यावो' के उपदेश को आज किस आसन पर बैठा सकते हैं। मनुष्य आज जिस विश्व में सांस ले रहा है, उसके सपने दूसरे ही है। हमें सोचना होगा कि आखिर इन त्यागपूर्ण उपदेशों और आचार-विचारों के कारण देश की गरीबी, आंकाक्षा, बेकारी, अस्वास्थ्य में विगत हजारों वर्षों में कितनी कमी आयी? और क्या आ सकती है। कहीं न कहीं हमारी समाज रचना में, धर्म चिन्तन में चूक रही है। हमें ग्रंथ, पंथ और संत की घेरे बंदी से बाहर निकलकर अपनी स्वायत्त बुद्धि निष्ठा का उपयोग करना ही होगा। अध्यात्म को समाज सेवा परक रूप देना होगा।