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________________ पुस्तक लेखक प्रकाशक : : : पुस्तक समीक्षा मूल जैन - संस्कृति : अपरिग्रह पं. पद्मचन्द्र शास्त्री वीर सेवा मन्दिर, 21 अनसारी रोड, दरियागंज, नई दिल्ली-110002 पृष्ठ संस्करण मूल्य पुस्तक का 2005 में प्रकाशित तीसरा संस्करण हमारे हाथ में है । लेखक बहुश्रुत विद्वान् तथा दिगम्बर जैन आम्नाय के प्रति निष्ठावान् हैं। उन्होंने आचार्य कुन्दकुन्द से लेकर पश्चात्वर्ती अनेक महान् मनीषी आचार्यो के धवला आदि अनेक ग्रन्थों का आलोडन, मन्थन करके सिद्ध किया है कि जैन- संस्कृति अपरिग्रहमूलक है । पाँच व्रतों में सबसे महत्त्वपूर्ण सर्वोच्च व्रत अपरिग्रह ही जैनधर्म या संस्कृति की पहचान या लक्षण है । पाँच व्रतों के क्रम में अपरिग्रह पाँचवा अवश्य है, पर इसका अर्थ यह नहीं है कि वह गौण या निम्नस्तर पर है। इसे यों भी समझ सकते हैं कि प्राथमिक शाला का छात्र धीरे-धीरे ऊपर उठकर अंतिम सीढ़ी पर पहुँचता है, सर्वोच्च उपाधि ग्रहण करता है, तो प्राथमिकता अपने आप गौण या अनुपयोगी हो जाती है । इस प्रकार जैन संस्कृति या दिगम्बरत्व का मूल आधार सम्पूर्णतया अकिंचन स्थिति तक का अपरिग्रह ही है और वही उसका लक्षण या चिन्ह है । 48 तीसरा : स्वाध्याय : आगम सम्मत गाथाओं तथा सूत्रों के अनुसार विद्वान् लेखक ने यह भी स्पष्ट किया है कि पापों या दोषों से विरति ही व्रत है । अहिंसा-सत्य-अचौर्य-शील का व्रत कैसे लिया जा सकता है? ये तो सामाजिक जीवन तथा सदाचार के नैतिक मूल्य हैं जो व्यक्ति की शक्ति, सामर्थ्य, भावना तथा संस्कारों पर निर्भर
SR No.538058
Book TitleAnekant 2005 Book 58 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2005
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size9 MB
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