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________________ अनेकान्त-57/1-2 ही अपना बंधु है, अपना आश्रय है। कर्म से ही लोग ऊंचे-नीचे हुए हैं। भंते! आपने ठीक कहा। प्रवचनसार टीका में अमृतचन्द सूरि लिखते हैं- क्रिया खल्वात्मना प्राप्यत्वात्कर्म, तन्निमित्तप्राप्तपरिणामः पुद्गलोऽपि कर्म (पृ. 165) आत्मा के द्वारा प्राप्त होने से क्रिया को कर्म कहते हैं। उसके निमित्त से परिणमन को प्राप्त पुद्गल भी कर्म कहा जाता है। इसका अभिप्राय यह है कि आत्मा में कम्पनरूप क्रिया होती है। इस क्रिया के निमित्त से पुद्गल के विशिष्ट परमाणुओं में जो परिणमन होता है, उसे कर्म कहते हैं। आचार्य अकलंकदेव ने राजवार्तिक में लिखा है- 'यथा भाजन विशेषे प्रक्षिप्तानां विविधरसबीजपुष्पफलानां मदिराभावेन परिणामः तथा पुद्गलानामपि आत्मनि स्थितानां योगकषायवशात् कर्मभावेन परिणामो वेदितव्यः।' जैसे पात्र विशेष में डाले गये अनेक रस वाले बीज, पुष्प तथा फलों का मदिरारूप में परिणमन होता है, उसी प्रकार योग तथा कषाय के कारण आत्मा में स्थित पुद्गलों का कर्मरूप परिणाम होता है। भारतीय दर्शन में ईश्वरवादी और अनीश्वरवादी के रूप में दो परंपरायें प्रचलित हैं। न्याय-वैशेषिक, सेश्वर सांख्य-योग और वेदान्त दर्शन ईश्वरवादी कहे गये और जैन, बौद्ध, मीमांसा, चार्वाक अनीश्वरवादी। जैन मनीषियों ने गुणों के आधार पर अपने उपास्य को स्वीकार करने की बात कही तथा अन्यों ने प्रायः सभी गुण ईश्वर में समाहित कर दिये। जैनों का ईश्वर मानवता का चरमोत्कर्ष है। मानव के ऊपर ईश्वर का कोई अस्तित्व नहीं। न्याय-वैशेषिक की दृष्टि से ईश्वर नित्य, मुक्त, सर्वशक्तिमान, सर्वज्ञ और इस जगत् का निमित्त कारण है। ईश्वर के अतिरिक्त इस दर्शन में अन्य योगियों की आत्माओं में भी सर्वज्ञत्व को स्वीकार किया गया है, पर वह ज्ञान अनित्य है। ईश्वर का ज्ञान नित्य और अपरोक्षात्मक है। अपवर्ग की प्राप्ति ईश्वर के बिना संभव नहीं है और अपवर्ग में आत्मा के सभी आगंतुक गुण हमेशा के लिए विनष्ट हो जाते हैं। ईश्वर का अस्तित्व इस दर्शन में शब्द और
SR No.538057
Book TitleAnekant 2004 Book 57 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2004
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size9 MB
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